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________________ १७२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० .... ......." गाSHAD प्रदान कर दी । मेवाड़ के चतुर्विध संघ में हर्ष की लहर दौड़ गई। कई संघ अपने यहाँ आचार्यपदोत्सव कराने को उत्सुक हो गये । अन्त में सरदारगढ़ संघ को चतुर्विध संघ की स्वीकृति मिली। यथासमय मेवाड़ का चतुर्विध संघ सरदारगढ़ में बड़े उत्साह के साथ एकत्रित हुआ। सं० १९६३ ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया का दिन था । मेवाड़ के चतुर्विध संघ ने परमोल्लास के साथ मुनिश्री को आचार्य पद पर अभिषिक्त किया। मेवाड़ संघ का नेतृत्व पूज्य श्री के सबल कर-कमलों में सौंपकर संघ के प्रमुख सज्जनों ने बड़े सन्तोष का अनुभव किया । व्यक्तित्व, वक्तृत्व और उपकार पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज साहब का व्यक्तित्व अपने आप में सुदृढ़ और आकर्षक था । गेहुँए वर्ण में सुगठित विशाल देह-राशि का एक-एक अंग मानो ढला हुआ सा था। विशाल देह के अनुरूप खिले हुए पूर्ण चन्द्र जैसा मुख-मण्डल, चिबुक से हृदय माग तक चली आई मध्य-रेखांकित प्रलम्बमान अयाल, सुविस्तृत हृदय, विशाल भुजाएँ, ऊर्ध्वरेखांकित यथोचित पद-कमल-इस तरह पूज्य श्री का वपू-वैभव कुल मिलाकर भाग्यशाली था। तन जितना सुन्दर था, मन उससे भी कहीं ज्यादा सुन्दर था । स्वभाव से मञ्जुल, व्यवहार में पटु तथा बातचीत में शालीन पूज्य श्री अपने युग के एक सफल और सुयोग्य आचार्य थे। आचार्य श्री के व्यक्तित्व में एक जादू तथा विलक्षण ओज था । जहाँ उनके व्याख्यानों में तथा दर्शनार्थ हजारों नागरिक उमड़े आते थे वहाँ उनके किसी प्रतिपक्षी को आने तक की हिम्मत नहीं होती थी। आचार्य श्री का युग साम्प्रदायिक संघर्षों का युग था । प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुयायी दूसरे को नीचा दिखाने की चेष्टा किया करते थे। किसी को भी आमने-सामने कटु शब्द सुना देना, उस समय बड़ा आसान था । उस स्थिति में भी आचार्य श्री का ओजस्वी व्यक्तित्व ओछेपन से कोसों दूर था। उनके समक्ष, किसी का साहस नहीं हो पाता था कि वह आकर कोई विवाद करे।। मारवाड़ सादड़ी में आचार्य श्री का चातुर्मास था। कुछ उपद्रवी तत्त्व एन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अवसर पर द्वार पर नाचने और चिल्लाने लगे । श्रावक वर्ग जो प्रतिक्रमण में लगा था, इस चिल्लाहट से कुछ उद्वेलित हो गया। श्रावक प्रतिकार को उद्यत हुए तो पूज्यश्री ने रोक दिया। दूसरे दिन वह चमत्कार हुआ कि सारे अपराधी तथा उपद्रवी तत्त्व चरणों में पहुँच क्षमा-याचना करने लगे। पूज्य श्री जब कहीं विहार करते, हमने देखा कि जो भी व्यक्ति उन्हें देखता, प्रभावित नतमस्तक हो जाता। प्रायः गाँवों में अनपढ़ किसान लोग मुनियों को देखकर उनका ठठ्ठा कर लिया करते हैं। किन्तु पूज्य श्री को यदि कोई देख लेता तो वह बैठा भी तत्काल खड़ा हो जाता । पूज्य श्री भी खड़े रहकर उसकी भक्ति को रचनात्मक रूप देने लगते । कुछ त्याग प्रत्याख्यान कराते हुए आगे बढ़ जाते । प्रायः देखा गया कि उन्होंने जिसे भी प्रत्याख्यान, त्याग के लिए कहा तो कभी इन्कार नहीं सका। इस तरह पूज्य श्री का ऊर्जस्वल व्यक्तित्व जन-जीवन के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध होता रहा । एक बार खमनौर चातुर्मास में ईद का दिन था। वह बकरा ईद थी। एक बकरा शाम को किसी तरह अपने बन्धन से छूट आया जो सीधा पूज्य श्री के पाट के नीचे आकर बैठ गया । रात भर उसी तरह बैठा रहा । प्रातः उसके अधिकारी को बुलाया । वह बड़ा आग-बबूला था, किन्तु पूज्य श्री के दर्शन करते ही पानी-पानी हो गया। उसने तुरन्त वन्दन कर बकरे को अमर करने की घोषणा कर दी। उसने कहा-सन्त का दरबार खुदा का दरबार है। मेरा बकरा यहां पहुंच गया तो खुदा के पास ही पहुंचा । जो खुदा से जा मिला, उसे कोई इन्सान कैसे मार सकता है । उसके पास एक बकरा और था। उसे भी उसने अभय दे दिया। ऐसा था पूज्य श्री का अदभूत व्यक्तित्व । पूज्य श्री की वाणी केवल हृदय की वस्तु होती थी, जो केवल हृदय से आती थी। वाणी में ऐसी सरलता एवं सहजता थी कि श्रोता उसे तुरन्त हृदयंगम कर जाए । पूज्य श्री की वाणी में एक जादू-सा असर था । इसके कई प्रमाण हैं । SHARE RAMES Mana 圖圖圖圖 SBRRO HUISIEKARNILOSTERON ananarasia
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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