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________________ पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज | १७१ मुनिश्री ने उक्त अवसर पर सोचा- प्रयास करू तो क्या मैं नहीं लिख सकता हूँ । दृढ़ निश्चय कर उसी दिन से सुलेखन का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। थोड़े ही दिनों में मुनिश्री का लेखन मोती की लड़ियाँ पिरोने लगा । अब तो मुनिश्री को लिखने का वह चाव जगा कि दिन में छह घण्टा कभी आठ घण्टा लिखने में ही चले जाते । यह क्रम वर्षो तक चला। आज भी पूज्य श्री के हस्तलिखित शास्त्र, चरित्र, ढालें बड़ी भारी मात्रा में उपलब्ध हैं। उनके इस विशाल लेखन कार्य को देख उनको कर्मठता का सिक्का स्वीकार करना ही पड़ता है। लेखन कार्य कितना अधिक श्रमसाध्य है, इसे आज केवल वही जान सकता है, जो छह घण्टा लगातार बैठकर लिखे । आज हम किसी लिखित पत्र को तुच्छ-सा समझ फाड़ या फेंक डालते हैं, किन्तु यह नहीं सोच पाते कि इसे तैयार करने में लेखक की कितनी जीवनी शक्ति का व्यय हुआ होगा । आज हम प्रकाशन- परम्परा में हैं। किन्तु हम लेखन परम्परा के ऋणी हैं। यदि लेखन परम्परा भारत में नहीं होती तो हमारे हजारों शास्त्र और पूर्वजों की करोड़ों रचनाएं हम तक पहुँच ही नहीं पातीं। हम पशु की नांई नितान्त रीते होते । उन लेखकों को धन्य है, जिन्होंने अतीत को लेखन में जीवित रखा । आचार्यत्व और उपकार संवत् १६८७ वें वर्ष में मेवाड़ संघ के तत्कालीन आचार्य प्रवर पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज का ऊँठाला में स्वर्गवास हो चुका था । मेवाड़ सम्प्रदाय के चतुविध संघ की हार्दिक इच्छा थी कि आचार्य पद पर श्री मोतीलालजी महाराज को अभिषिक्त कर दिये जाएँ । श्री संघ का आग्रह जबरदस्त था । किन्तु मुनिश्री किसी पद पर जाने को कतई तैयार नहीं थे। मुनिश्री के व्यक्तृित्व में एक जादू था। निर्दोष क्रिया, अनुठा वक्तृत्व तथा मधुर वाणी का जन-जीवन पर विलक्षण प्रभाव था । पूज्यश्री के स्वर्गवास के बाद मेवाड़ की विशाल धर्मप्रेमी जनता की आशा के सम्बल मुनिश्री थे । मुनिश्री के बढ़ते प्रभाव को देखकर कुछ एक तत्त्व ऐसे भी थे, जो मन ही मन ईर्ष्या की आग में जलते रहते थे। किन्तु सम्प्रदाय में उनका कोई प्रभाव नहीं था । मुनिश्री भी ऐसे तत्त्वों से परिचित थे । वे यह अच्छी तरह जानते थे कि ऐसे तत्त्व संघ के सामूहिक दबाव से अभी अनुकूलता प्रदर्शित कर रहे हैं। किन्तु भविष्य में सर्वदा साथ देंगे, इसका कोई विश्वास नहीं । मुनिश्री दृढ़ता के साथ आचार्य पद के लिए इन्कार हो गये । चतुर्विध संघ में गहरी निराशा छा गई। मुनिश्री मेवाड़ से दूर-दूर तक विहार कर गये । आचार्य से रहित मेवाड़ सम्प्रदाय में एक ऐसी रिक्तता छा गई जो असह्य थे। चारों ओर निराशा का वातावरण था । इससे सम्प्रदाय और धर्मसंघ की बड़ी हानि हो रही थी । जो कुछ तत्त्व मुनिश्री के अन्तविरोधी थे, जनता का आक्रोश उनके प्रति भी कम नहीं था। जैसे-जैसे समय बीतता गया, आचार्य की अनिवार्यता बढ़ती गई । यत्र-तत्र मेवाड़ संघ एकत्रित होता रहा और एक मत से निश्चय होता रहा कि किसी भी कीमत पर मुनिश्री मोतीलाल जी महाराज को आचार्य पद के लिए मनाया जाए। संघ के डेटेशनप्यू मुनिश्री के पास पहुंचने लगे। मेवाड़ के साधु-साध्वी समाज ने जैसे भी हो आचार्य पद देने का निश्चय कर ही लिया । अन्ततोगत्वा मुनिश्री मेवाड़ में आये और संघ में आशा की नई किरण चमकने लगी । संघों के प्रमुख और साधु-साध्वी मुनिश्री के पास एकत्रित होकर आचार्य पद के लिए गहरा दबाव डालने लगे । मुनिश्री ने फिर भी इन्कार किया । किन्तु इस बार आग्रह चरम सीमा का था। आचार्य के अभाव में संघ की जो स्थिति होती जा रही थी, मुनिश्री ने गहराई से उसे समझा । मुनिश्री ने अनुभव किया कि अब लम्बे समय तक संघ को असहाय स्थिति में रखना उचित नहीं । आचार्य जैसे जिम्मेदारी के पद पर आसीन होना, कई कठिनाइयों से परिपूर्ण है फिर भी मुनिश्री ने अनुभव किया कि अब इस जिम्मेदारी की घड़ी में दूर हटना कर्त्तव्यपथ से गिरना है। कांटों का ताज है, किन्तु पहनना ही होगा । अन्यथा मेवाड़ संघ नेतृत्वहीनता की स्थिति में अवरुद्ध हो जाएगा । मुनिश्री ने समय की चुनौती को समझकर स्वीकृति bodhashramd - 000000000000 000000000000 *000000000 đơn hàng đ 5.BX/
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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