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१७० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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वे सपने संजो रहे थे कि बहुत शीघ्र ही एक बहू मेरे आँगन पर आएगी और उसकी भावभीनी सेवा से मेरा वाद्धं क्य एक विशेष शान्ति को लिए पूर्ण हो जाएगा। किन्तु होना क्या है, इसे कौन जाने !
युवक मोतीलाल जी के विवाह के प्रस्ताव चल ही रहे थे कि अचानक श्री धूलचन्द्र जी का देहावसान हो गया । मातृवियोग तो पहले हो ही चुका था, पिता के भी अनायास इस तरह उठ जाने से श्री मोतीलाल जी का संसार के प्रति रहा-सहा अनुराग भी समाप्त हो गया। वैराग्य और दीक्षा
पितृवियोग क्या हुआ, मानों मोतीलाल जी को संसार से एक मुक्ति मिल गई । संसार और सांसारिकता के प्रति जो एक घृणा बहुत पूर्व बचपन से मन में पल रही थी, वह अचानक सक्रिय बनकर वैराग्य मार्ग से जीवन के धरातल पर चल पड़ी। सांसारिक लोगों के आग्रहों और प्रलोभनों का पार न था, किन्तु दृढ़निश्चयी श्री मोतीलाल जी बराबर उन्हें ठुकराते रहे।
पूज्य श्री एकलिंगदास जी महाराज उस समय मेवाड़ धर्म संघ के प्रधान मुनिराज थे । वे ऊँठाला पधारे । श्री मोतीलाल जी के लिए मानों स्वर्ण सूर्य का उदय हो गया। उन्होंने अपने को त्याग, तप और ज्ञानाराधना में लगा दिया।
पूज्य श्री एकलिंगदास जी महाराज युवक श्री मोतीलाल जी के इस आध्यात्मिक अभ्युदय से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने सुपात्र समझ तत्त्वोपदेश दिया।
वैराग्य की उत्तरोत्तर प्रवर्द्धमान लहरों में झूमते युवाहृदय श्री मोतीलाल जी ने अपने सम्बन्धियों के सामने संयम का प्रस्ताव रखा । पारिवारिक जन बहुत पहले से समझ चुके थे कि इस ऊर्जस्वल व्यक्तित्व को अपने क्षुद्र घेरे में बाँधना अपने लिए शक्य नहीं होगा। उन्होंने थोड़ी-बहुत ननुनच के बाद स्वीकृति दे ही दी।
मुमुक्षु श्री मोतीलाल जी अब एक क्षण भी संसार में खोना नहीं चाहते थे। सं० १९६० मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी के शुभावसर पर सनवाड़ में एक बहुत अच्छे सुन्दर समारोह के साथ श्री मोतीलाल जी ने पूज्य श्री के चरणों में संयम प्राप्त कर अपना अभीप्सित प्राप्त किया। सेवा और साधना
संयम यदि पुष्प है तो सेवा और साधना सुगन्ध है । पुष्प में यदि सुगन्ध न हो तो वह कितना सार्थक है, पाठक स्वयं समझ सकते हैं। श्री मोतीलाल जी चिलचिलाती यौवनावस्था में मुनि बने । यह अवस्था संसार में प्रवेशअवस्था है । सशक्त शरीर और सबल इन्द्रियाँ अनायास ही इस उम्र में विकारों की ओर दौड़ लगाती हैं। इस उम्र में संयम लेकर इन्द्रियों के घोड़ों पर लगाम लगा उन्हें संयम-मार्ग पर प्रवृत्त करना एक ऐसा अभियान है, जिसके लिए बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता होती है । श्री मोतीलाल जी महाराज में यह शक्ति पर्याप्त थी। उन्होंने संयम लेते ही एक समय भोजन वह भी रूखा और ठण्डा लेना प्रारम्भ कर दिया। यह क्रम तेरह वर्षों तक चलता रहा ।
साधना केवल आहार-त्याग तक ही सीमित न थी। ज्ञान, दर्शन की तरफ भी उन्मुख थी, शास्त्रीय अध्ययन के साथ अन्य धर्मग्रन्थों का अध्ययन भी साथ-साथ चलता रहा । बहुत जल्दी ही प्रवचन में प्रवृत्त हो जाने से प्रवचन योग्य आवश्यक ज्ञान के सम्पादन में भी गहरे श्रम के साथ लगे रहे।
कुछ वर्षों में ही प्रवचन में चमत्कार-सा प्रतीत होने लगा। हजारों श्रोता मन्त्रमुग्ध बन प्रवचन में घण्टों लाभ उठाते रहते, यह गहरी ज्ञान-साधना का परिचायक है।
उस युग में लेखन का बड़ा महत्त्व था । प्रकाशित पुस्तकें कम थीं। अधिकतर हस्तलिखित पुस्तकों का ही प्रयोग होता था। मुनि श्री बड़ी गम्भीरता के साथ लेखन-कार्य में प्रवृत्त हुए । इसके पीछे भी एक प्रसंग था।
एक बार मुनिश्री को 'लोगस्स' की हस्तलिखित प्रति की आवश्यकता हुई । एक साथी मुनि, जो लेखक थे, से उन्होंने कहा-"आप एक 'लोगस्स' की प्रति लिख दें।" लेखक मुनि जी ने हाँ तो की, किन्तु अन्तर में उपेक्षा के भाव थे, जो साफ झलक रहे थे । मुनिश्री ने एक बार पुनः आग्रह किया, उन्होंने समयाभाव बताया। साथ ही कहा-यदि समय मिला तो लिख देंगे । मुनिश्री समझ गये कि इनकी भावना लिखने की कम है ।
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