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१५८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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"मई, इसमें महाराज का क्या दोष ! उन्होंने पहले ही उसे सावधान किया था।" "अरे, साधु को सताना बुरा है।" "सताने की भी हद होती है, सरेआम जलील करना क्या अच्छी बात है ?" इस तरह सब तरफ कई बातें हो रही थीं।
सूबेदार का परिवार और निकटस्थ जन दौड़कर मुनिश्री के द्वार पर पहुँचे और भक्तिपूर्वक अनुनय-विनय करने लगे।
मोरबी दरबार भी यह दृश्य देखकर मुनिश्री की सेवा में पहुंचे और सूबेदार की धृष्टता को क्षमा करने का आग्रह करने लगे। मुनिश्री ने कहा-"मैंने तो उसे भूमि में उतारा नहीं ! जो कुछ हुआ, यह तो उसकी करनी का ही फल है। धर्मशासन को कलंकित करने का एक निम्नतम षड्यन्त्र उसने रचा था। उसकी शैतानी असह्य थी। किसी शासन-रक्षक दैविक शक्ति का ही यह चमत्कार हो सकता है । सरेआम अपराधी दण्डित हो गया ! धर्म के गौरव की रक्षा हो गई।"
दरबार ने कहा-"गुरुदेव ! अब तो वह दण्डित हो चुका है। धर्मशासन की उज्ज्वलता चमक उठी है। पाखण्ड का पर्दा उठ चुका है। अब तो उसका जीवन बच जाना चाहिए। अन्यथा धर्म-शासन नर-हत्या का अपराधी हो जायगा।"
आप तो दया और क्षमा के समुद्र ही हैं, उस तुच्छ को क्षमा कर दीजिए ! आपकी आज्ञानुसार मैं धर्म-शासन की सेवा करने को तत्पर हूँ।
मुनिश्री ने कहा- “मेरा तो उसके प्रति कोई क्रूर भाव नहीं है । धर्म-शासन की उज्ज्वलता रह गई, यह अपार आनन्द का विषय है।"
मुनिश्री सूबेदार के मुण्ड के निकट पहुंचे और मांगलिक प्रवचन किया। अद्भुत बात थी कि तत्काल सूबेदार भूमि पर उभर आया ।
सूबेदार ने तत्काल मुनिश्री के दोनों पाँवों में अपना सिर टेक दिया। अपने विगत अपराधों की क्षमा चाहने लगा। मुनिश्री ने उसे धर्मोपदेश दिया।
सारे नगर में धर्म और मुनिश्री के जयकार होने लगे।
मोरबी दरबार के पुत्र श्री गुलाबसिंहजी श्री बालकृष्णजी महाराज के परम भक्त थे। मुनिश्री के उपदेशों से उन्हें संसार से उपराग हो रहा था । वे संयम लेने के इच्छुक थे। किन्तु दरबार की आज्ञा का प्रश्न था । दरबार के सामने अपने मन की बात कहने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। उन्हें आज्ञा मिलने की सम्भावना भी नहीं थी। अतः वे मन ही मन बड़े दुःखी थे।
सूबेदार के उद्धार से दरबार बड़े हर्षित एवं उत्साहित बने हुए थे। उन्होंने मुनिश्री से किसी उपकार के लिए पूछा । मुनिश्री ने बड़ी सरलता से कहा-"गुलाबसिंह जो तुम्हारा पुत्र है, मुझे दे दो!"
यह सुनते ही दरबार कुछ चिन्ता में पड़ गये, क्योंकि संयम का कार्य आसान कार्य तो था नहीं और फिर गुलाबसिंह के विचारों का भी प्रश्न था । पास ही गुलाबसिंहजी थे। उन्होंने कहा-"दाता ! आपकी आज्ञा होगी तो मैं गुरु महाराज की सेवा करूंगा । कई दिनों से मेरी इच्छा हो रही है।"
पुत्र प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है। संयम के लिए अनायास अनुमति देना प्रायः असम्भव होता है । किन्तु धर्मानुरागी विवेकसम्पन्न मोरबी दरबार ने गुलाबसिंहजी की इच्छा देखकर तथा गुरु महाराज के आग्रह को देख कर अपनी वाणी की प्रतिपालना करते हुए, गुलाबसिंहजी को, संयम के लिए आज्ञा प्रदान कर दी। कहते हैं, उस युग में एक लाख रुपये खर्च कर मोरबी दरबार ने बड़ा भारी दीक्षा-उत्सव रचा और गुलाबसिंहजी की दीक्षा सम्पन्न करवाई। इस कार्यक्रम का निश्चित समय तो कहीं मिला नहीं, किन्तु विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में इसका होना माना जा सकता है।
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