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________________ . श्री बालकृष्ण जी महाराज | १५७ 000000000000 ०००००००००००० KARNIK UTTITUAW मुनि ने तत्काल पात्र खोल दिये। किन्तु यह क्या? पात्रों में मांस भरा है ! मुनि सकपका गये । उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। जन-समूह जो उपस्थित था, कई तरह की बातें करने लगा। बिजली की तरह यह चर्चा चारों तरफ फैल गई। जैनधर्म की बड़ी निन्दा होने लगी। मुनि अपने गुरु बालकृष्णजी महाराज के पास पहुँचे । सारा वृतान्त सुनाया । आहार जंगल में परठ दिया गया। जो कुछ हुआ, सज्जनों को उसका बड़ा खेद था । धर्म का अपमान था। आनन्द की जो महक फैली हुई थी, इस घटना में कपूर की डली की तरह उड़ चुकी थी। मुनि जिधर निकलते उधर मूखों की तरह से कटुवाक् वर्षा होती रहती थी। श्री बालकृष्णजी महाराज धर्म पर आये इस कलंक को तुरन्त धो डालना चाहते थे। मुनिमर्यादा के अनुसार एक दिन निकालकर तीसरे दिन श्री बालकृष्णजी महाराज स्वयं अपने शिष्यों के साथ राजमहलों में गोचरी पधारे। सुबेदार फिर फजीहत करने को उपस्थित था। आज सैकड़ों ही नहीं, हजारों व्यक्ति यह कौतुक देखने को उपस्थित थे। सूबेदार ने तेजी से प्रचार किया था कि देखिए, आज मैं फिर इन साधुओं से मांस बरामद कराऊँगा। श्री बालकृष्ण जी महाराज आहार लेकर ज्यों ही राजद्वार से बाहर आये, सूबेदार ने कड़ककर कहा"महाराज ! क्या लाये ?" "दाल-बाटी लाया हूँ।" "नहीं, तुम झूठ बोले हो, तुम मांस लाये हो !" "नहीं, मैं जैनमुनि हूँ, झूठ नहीं बोल सकता !" "उस दिन भी झुठ बोला था, साधु !" ... "नहीं, वह भी सत्य बोला था।" "तुम सब झूठे हो, माँस लाये हो, और झूठ बोलते हो !" "साधु से मत टकरा ! परिणाम ठीक नहीं !" "मैं नहीं डरता, मैंने कई साधुओं की पोल खोली है !" "तू भ्रम में है, अब भी चुप हो जा !" "तुम पात्र खोलो, इसमें माँस है !" "नहीं, माँस नहीं, दाल-बाटी हैं।" "दाल-बाटी नहीं, मांस है !" मुनि ने कहा--"ले देख ! ऐसा कहते ही, ज्योंही पात्र खोले, सब ने देखा-वास्तव में पात्रों में दालबाटी ही थी।" अब सूबेदारजी के सकपकाने का अवसर था । उसके चेहरे की सु/ हवा हो गई। वह घबरा गया। अगलबगल झाँकता हुआ वह वहाँ से चलने को ही था कि उसके पाँव भूमि से चिपक गये । अरे, यह क्या ? सूबेदार गले तक भूमि में धंस गया ! मुनिराज अपने स्थान पर चले आये। मोरबी का बच्चा-बच्चा एक अजूबा देखने को उमड़ पड़ा। राजमहलों के बाहर विशाल मैदान जनता से पटा हुआ है। सूबेदार का केवल सिर गेंद की तरह भूमि पर दिखाई दे रहा है। आँखें आँसू बरसा रही हैं, जो किये के पश्चात्ताप की सूचना दे रही थीं। जन-समूह में तरह-तरह की बातें उभर रही हैं"नीच, ऐसी ही दुर्गत होनी चाहिए दुष्ट की।" "अरे, बिचारा अब तो माफ हो जाए तो ठीक ।" "तड़फने दो दुष्ट को, बड़ा शैतान है।" "अरे, इस तरह तो यह मर जायगा।" "महाराज ने भी इतना कड़ा दण्ड दिया।" ....... PRESS A मना -.- MARYTor Private & Personal use only -.-" :584/ www.jainelibrary.org Jain Education international
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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