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तपस्वीराज श्री सूरजमलजी महाराज
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जैन मुनि परम्परा का उज्ज्वल इतिहास तब तक अपूर्ण ही रहेगा जब तक विस्मृत किन्तु छिपी हुई विभूतियों का प्रामाणिक इतिहास सामने न आए।
पट्टनायक को ही महत्त्व देने की परम्परा से कई ऐसी सन्त-विभूतियों के नाम तक विस्मृत हो गये हैं जिन्होंने अपने उज्ज्वल संयम, प्रखर तेजस्वतिा के द्वारा शासन को दैदीप्यमान किया था। अनुसंधान और खोज प्रधान वर्तमान युग में भी उन पुण्यात्माओं से परिचय नहीं हो तो यह एक खेद की बात होगी।
सन्त परम्परा की जो ज्योतिर्मयी कड़ियां कई कारणों से विशृखलित हो गई हैं, अब समय आ गया है कि हम उन्हें पुन: प्रकाश में लायें और गौरवमयी संत परम्परा से जन-जन को परिचित करें।
राजस्थान के मेवाड़ प्रदेश में विचरने वाली प्रमुख संत परम्परा मेवाड़ सम्प्रदाय के नाम से विख्यात है। उपलब्ध प्रमाण और किंवदन्तियों से प्रतीत होता है कि इस सन्त परम्परा में कई तपोपूत तेजस्वी महात्मा हुए जो इस प्रदेश की राणा-परम्परा के अनुरूप ही गौरवशाली संयम शूरता के अवतार थे।
पुराने हस्तलिखित पत्रों की देखभाल करते हुए एक-पत्र जो धुरन्धर विद्वान् कविवर्य श्री रिखबदास जी महाराज द्वारा रचित स्तवन का मिला जिसमें तपस्वीराज श्री सूरजमल जी महाराज का परिचय दिया हुआ है । पत्र की हस्तलिपि श्री रिखबदास जी महाराज की ही प्रतीत होती है । तपस्वीराज श्री सूरजमल जी महाराज क्या थे? आज सम्भवतः मेवाड़ में उनके विषय में कोई कुछ नहीं जानता किन्तु इस एक स्तवन पत्रक ने उन्हें सन्त परम्परा की एक दैदीप्यमान मणि सिद्ध कर दिया । स्तवन जो परिचय देता है वह संक्षिप्त में यह है
तपस्वीराज श्री सूरजमल जी महाराज का जन्म स्थान “कालेरिया" (देवगढ़) था । लोढ़ा गोत्रीय श्री थान जी तथा श्री चन्दूबाई के यहाँ संवत् १८५२ में उनका जन्म हुआ। २० वर्ष की उम्र में पूज्य आचार्य श्री नृसिंहदास जी महाराज के पास सं०१८७२ चैत्र कृष्णा १३ के दिन आपने संयम पर्याय धारण की। दीक्षा-स्थल कौन-सा रहा? इसका कुछ परिचय नहीं मिल सका । ३६ वर्ष निर्मल संयम पालन कर सं० १६०८ ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी को आपका स्वर्गवास हुआ। छत्तीस वर्ष का यह संयमी जीवन घोर तपोसाधना में गया। स्तवन के निर्देश के अनुसार तपस्वी जी ने अपने जीवन में दो बार कर्म चूर तप किया । पाँच माह का दीर्घ तप एक बार किया। सैंतीस, पैंतीस तथा पन्द्रह दिन के तप भी किये।
यह केवल बड़ी तपश्चर्या की सूचना है। फुटकर तप कितना किया होगा। यह पाठक स्वयं अनुमान लगा लें। जिनशासन जो आज पल्लवित पुष्पित दिखाई दे रहा है । वह ऐसी ही तपोपूत आत्माओं की देन है । अन्त में हम वह स्तवन पूर्ण रूप से उद्धृत करते हैं जो तपस्वी जी के जीवन का परिचायक तो है ही कविराज श्री रिखबदास जी महाराज की कविता का एक अच्छा नमूना भी है
देसी-लावणी] श्री सूरजमल जी, तपसी बड़े वैरागी, ज्यां ततखिण तज संसार संजम लव लागी। थारो वास देस मेवाड़, कालेऱ्या माही, हुआ लोढ़ा कुल में परम महा सुखदाई ॥१॥ प्यारा पिता थान जी, माता चन्दूबाई, हुआ बीस बरस में दिख्या दिल में आई। गुरु भेट्या पंडित, पूज्य शिरोमणि भारी, पुज नरसिंहदास जी, संघ मणी सुखकारी ॥२॥
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