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१५० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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पूज्य श्री का अन्तिम चातुर्मास नाथद्वारा था। उसी वर्ष किसी छोटे-से गाँव में उनका स्वास्थ्य नरम हो चला । व्याधि कुछ ज्यादा बढ़ी तो चारों तरफ एक चिन्ता फैल गई।
छोटा-सा गाँव अपनी जिम्मेदारी के अनुरूप तैयारी करने लगा तो पूज्य श्री ने कहा-तुम कोई चिन्ता न करो। मैं नाथद्वारा चातुर्मास के लिए जाऊंगा और वहीं से मेरा अन्तिम प्रयाण होगा।
वास्तव में पूज्य श्री नाथद्वारा पधारे और कई दिनों तक धर्मोपदेश देकर जनजीवन को लाभान्वित किया । चातुर्मास का अन्तिम माह कार्तिक आया । पूज्य श्री के स्वास्थ्य में शिथिलता आने लगी। अन्त में कार्तिक शुक्ला पंचमी को जैनेन्द्रीय विधि सहित पूज्य श्री का सुरलोकगमन हुआ ।
पूज्य श्री एकलिंगदास जी महाराज के पूज्य पद प्रदान करने के उत्सव को छपी पुस्तक में पूज्य श्री का स्वर्गवास चैत्र में लिखा, किन्तु अनुश्रुति और पट्टावली कार्तिकी पंचमी का समर्थन करती हैं ।
'आगम के अनमोल रत्न' के लेखक के मतानुसार स्वर्गवास का संवत् उन्नीस सौ तिरसठ है। किन्तु यह युक्त नहीं लगता । कारण यह कि पूज्य श्री एकलिंगदास जी महाराज के गुरु श्री वेणीचन्दजी महाराज का स्वर्गवास उन्नीस सौ इकसठ चैनपुरा में माना जाता है तो क्या पूज्य श्री मानजी स्वामी से पहले ही बेणीचन्द जी महाराज का स्वर्गवास हो गया? यह सर्वविदित है कि वेणीचन्दजी महाराज के स्वर्गवास के समय मानजी स्वामी उपलब्ध नहीं थे तो १६६३ का स्वर्गवास होना स्वतः ही असिद्ध हो जाता है।
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कुछ लोग तलवार से मारते हैं। कुछ लोग वचन-प्रहार से मारते हैं। कुछ लोग मीठी मनुहार से मारते हैं । कुछ लोग प्यार से मारते हैं। कुछ लोग उपकार के भार से मारते हैं।
-'अम्बागुरु-सुवचन
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