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१५२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
संवत अठारे सितर दोय के माँही, विध तेरस चेतरमास दिख्या ले वाई । करे विनो भगति, गुरु देवा में अति भारी, रहे ज्ञान-ध्यान में तलालीन गुणधारी ॥३॥ सुध संजम पाल, सुमत गुपत करी सोहे, खिम्या गुण सागर, भवियण ना मन मोहे | सहु भणिया गुणिया, हुवा इगन का पूरा संजम रंग राता करम काटण महा सूरा ||४|| ज्यां भर जोबन में, बहु विध तपस्या कीधी, मुनिवर जग माँही सोभा अधकी लीधी । किया सैतीस, पैतीस, पाँच मास वले जाणी, वले करम चूर दोय पनराल तप आणी ||५|| ज्यां क्रोध लोभादिक उपशम च्यारू ही करिया, ममता नहीं मछर समता रस गुण भरिया । वे देश-प्रदेशां गाम नगर पुर माह्यो, मुनिवर विचरिया जिन मारग दीपायो || ६ || ज्यां छत्तीस वरस लग निरमल संजम पाली, दोखण दूरे कर आतम ने उजवाली । समत ओगणीसे बरस आँठों के माँही, वले जेठ सुद आठम दिन सुर पदवी पाई ||७||
मुझ बुध अलप छे, तुम गुण किण विध गाउँ, गुरु दरिया गुणकर भरिया पार न पाउँ । तुम रिखव रिसि पर, किरपा करियो स्वामी, सुख सम्पति आपो अरज करू सिर नामी ||८||
आनन्दस्वरूप ज्योति के मंगल दर्शन बाहरी आखें मूंदने मात्र से नहीं, किन्तु अन्तर चक्षु खोलने से होता है ।
- 'अम्बागुरु- सुवचन'
परम
फरु ठ
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