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________________ १४८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 1 000000000000 ०००००००००००० RIVAS Emmmmy बात अद्भुत हुई । किन्तु उसी दिन से बलिदान वहाँ लुप्त हो गया। अब केवल मीठी पूजा होती है । उस ब्राह्मण ने बताया कि यह घटना नव्वे से अधिक वर्ष के कई वृद्ध जानते हैं । महलों में साधु ही साधु सुनने में आया कि एक बार किसी विशेष प्रकरण को लेकर महाराणा ने जैन मुनियों को मेवाड़ से निष्कासन की आज्ञा देने का निश्चय किया । सारे मेवाड़ की धर्मप्रिय जनता उद्विग्न थी। चारों तरफ बड़ी चिन्ता फैली हुई थी। ऐसी स्थिति में महाराणा के राजमहलों में एक चमत्कार हुआ। __महाराणा को अपने महलों में सर्वत्र साधु ही साधु दिखाई देने लगे । उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिन्हें मैं देश निकाला देना चाहता हूँ, वे मेरे राजमहलों में कैसे आ गये। मजे की बात यह थी कि वे साधु की आकृतियाँ केवल महाराणा को ही दिखाई देती थीं, अन्य को नहीं । ___ महाराणा बड़े हैरान थे। उन्हें कोई समाधान नहीं मिल रहा था। अन्त में उन्हें किसी ने मानजी स्वामी का नाम सुझाया । मानजी स्वामी की याद आते ही महाराणा उनके दर्शनों के लिए आतुर हो गये। इधर पूज्य श्री मानजी स्वामी ने जब यह सुना कि महाराणा जैन मुनियों को मेवाड़ से बाहर निकालने की आज्ञा देने वाले हैं तो उन्होंने दा खेड़ा (वर्तमान देबारी) में एक देवड़ा क्षत्रिय के खेतों पर बनी घास-फूस की झोपड़ी में तेला (तीन दिनों की तपश्चर्या) कर लिया। चौथे दिन उस देवड़ा ने खोज करने वालों को पूज्य श्री की जानकारी दी। कहते हैं, ज्ञात होते ही महाराणा साहब पूज्य श्री की सेवा में पैदल पहुंचे और अपने विशेष आग्रह से उन्हें उदयपुर में लाये । जो आज्ञा जारी होने वाली थी, वह जहाँ की तहाँ समाप्त हो गई। जैनधर्म की बड़ी जबरदस्त प्रभावना हुई। उपर्युक्त घटना केवल किंवदन्ती तक जीवित है । लिखित आधार इसका कुछ है नहीं, किन्तु जो किंवदन्तियाँ हैं, उनका मूल कहीं न कहीं तो होता ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं । जय और क्षय एक ऐसी ही अनुश्र ति यह भी है कि नाथद्वारा में तिलोकचन्द जी लोढ़ा थे। बड़े अभावग्रस्त थे वे । एक बार पूज्य मानजी स्वामी वहाँ पधारे हुये थे। तिलोकचन्दजी को यह ज्ञात था कि पूज्य मानजी स्वामी बड़े तेजस्वी तपस्वी संत हैं। वे बड़े भक्तिभाव से उनकी सेवा करने लगे। तिलोकचन्द जी ने एक दिन अपनी दीनदशा का वर्णन पूज्य श्री के समक्ष किया । पूज्य श्री यन्त्र-मन्त्रवादी तो थे नहीं वे तो वीतराग मार्ग के प्रचारक थे। उन्होंने ध्यान से उनके दुखदर्द को तो सुना, किन्तु प्रत्युत्तर में केवल मांगलिक सुना दिया। ___ संयोग की बात थी। कुछ ही दिनों में तिलोकचन्दजी लोढा के यहाँ वैभव की अपूर्व वृद्धि होने लगी। दो-तीन वर्षों में ही वे नगर के प्रमुख धनाढ्यों में गिने जाने लगे। उन्होंने एक विशाल भवन बनवाया जो 'लोढों का महल' कहलाता था। उनके विशाल वैभव को देखकर श्रावकों ने उन्हें एक धर्मस्थान निर्मित करने का भी आग्रह किया। उन्होंने उसे स्वीकार भी किया। किन्तु वैभव की चकाचौंध में वे धर्मस्थान बनाने को टालते ही रहे । एक बार पुनः जब मानजी स्वामी नाथद्वारा ही विराजित थे, कुछ लोगों ने तिलोकचन्द जी से धर्मस्थान के लिए आग्रह किया, किन्तु उन्होंने उपेक्षापूर्ण जवाब दिया। पूज्य श्री मानजी स्वामी को किसी ने जानकारी दी तो उनके मुंह से सहसा ही ऐसा निकला कि स्वार्थियों से परमार्थ कहाँ सधता है ! धन का अत्याग्रह भी एक दरिद्रता है। . कहते हैं, उसी दिन से श्री लोढाजी का वैभव कपूर की डली की तरह उड़ने लगा, जो देखते ही देखते विलुप्त हो गया । बिचारे लोढाजी कुछ ही वर्षों में पूर्ववत् स्थिति को भी पार कर और अधिक दयनीय स्थिति में चले गये तथा वे उसी स्थिति में एक दिन संसार से भी विदा हो गये। जो 'लोढों का महल' कहलाता था, वह अब भूतों का महल कहलाने लगा । सारा घराना क्षरित होकर क्रमशः निःशेष हो गया । शेष बचा भवन अभी वल्लभनगर वाले गृहस्थों के पास है । IMAITRA MOHINI ..... : . 0900 198080 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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