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१४६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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गच्छी उपाश्रय में ठहरे । वहाँ यति विजय-प्रताप यन्त्र-साधना कर रहा था। उसके लिए वह अन्तिम दिन था। अर्द्धरात्रि के समय अधिष्ठित देवी सिंह का रूप धारण कर दहाड़ मारती गगनमंडल से उतरीं। उसका विकराल व्यक्तित्व इतना भयंकर था कि यति अत्यधिक डर गया । अतिभय के कारण कालकवलित हो गया। पास ही मानजी ध्यानस्थ थे। सिंहाकृति दहाड़ मारती उधर लपकी । श्री मानजी मुनि ने निर्भयतापूर्वक हाथ उठाकर दया पालने का सन्देश दिया । कहते हैं, उस देवी ने आधा हाथ अपने मुंह में दवा लिया । किन्तु मानजी स्वामी निर्भय ही रहे। उस महान निर्भयता के समक्ष देवी नतमस्तक हो बन्दन करने लगी। अपने अपराध की क्षमा चाहने के साथ ही उसने आजीवन सेवा करते रहने की प्रतिज्ञा की। कहते हैं। तभी से देवी और उसके अनुयायी दो भैरव मुनिश्री की सेवा में उपस्थित रहने लगे।
यह बात ठीक वैसी ही बनी कि चन्द्रहास खङ्ग साधा शम्बुक ने, किन्तु वह मिला लक्ष्मण को। इसी तरह यन्त्र की साधना को यति ने और उसका लाभ मिला श्री मानजी स्वामी को । डाकुओं को प्रतिबोध
एक बार पूज्य मानजी स्वामी मारवाड़, मेवाड़ के मध्यवर्ती विकट पहाड़ों में विचर रहे थे । एक जगह कुछ डाकुओं ने मुनिमंडल को घेर लिया। वे कपड़े छीनने लगे। श्री मानजी स्वामी ने बड़े धैर्य से उनको कहा-कपड़े तो तुम्हें और भी कहीं मिल जाएंगे, हम तो तुम्हें धर्म का अद्भुत रत्न देना चाहते है। उन्होंने कहा-मृत्यु के मुख में सभी को जाना है, तुम्हें भी जाना है । अपकर्म करके यहाँ अपयश और भय से जी रहे हो ! मृत्यु के बाद तुम्हें शान्ति मिल जाएगी, इसकी संभावना नहीं । ऐसा जीवन जो भय और बुराइयों से भरा हुआ है, एक जंजाल है। ऐसा दुष्ट जीवन जीने की अपेक्षा निर्भय विचरने वाले पशुओं का ही जीवन ज्यादा श्रेष्ठ है।
स्वामीजी के मामिक उपदेश से डाकू दल एक नई दिशा में सोचने लगा । पूज्य श्री के चेहरे और चक्षुओं की अनुपम प्रभा तथा उनके शानदार व्यक्तित्व से चकित होकर वे डाकू पूज्य श्री को निहारते ही रहे । वे बड़े प्रभावित होकर उपदेश का अमृत पीने लगे।
"पारस परसि कुधातु सुहाई" वाली कहावत के अनुसार पूज्य श्री के पावन प्रसंग से डाकू सच्चे नागरिक बनने को उत्साहित हो गये । उन्होंने डकेजनी का परित्याग करके भावी जीवन में शुद्ध रहने की प्रतिज्ञा ली। आप रहें, मैं जाता हूँ
एक बार मानजी स्वामी विजणोल (नाथद्वारा) पधारे थे। वहाँ के माफीदार उन्हें मार्ग में मिले । पूज्य मानजी स्वामी को अपने गाँव पधारते देखकर वे माफीदार आगे जाना बन्द कर स्वामीजी के साथ पुनः अपने गाँव चले आये। माफीदारों की बड़ी पोल के एक चबूतरे पर एक प्रेत ने निवास कर रखा था। उससे पूरा परिवार दुःखी था। माफीदारों ने सोचा-मानजी स्वामी बड़े करामाती हैं। इन्हें उसी चबूतरे पर उतारना चाहिए । अपना उपद्रव टल जाएगा। ऐसा सोचकर उन्हें वहीं ठहराया।
केवल मानजी स्वामी उस चबूतरे पर ठहरे । उनके शिष्य हीरालालजी, पन्नालालजी आदि पास वाले चबूतरे पर बैठे।
चबूतरे पर बैठते ही स्वामीजी ने कहा-अरे ! हीरा, पन्ना !! यहाँ तो उपद्रव है। हीरालाल जी महाराज ने कहा-गुरुदेव ! इधर पधार जाएँ।
“अब मैं क्या आऊ, रहने वाला ही जाएगा!" ऐसा ज्यों हीं मानजी स्वामी ने कहा-एक विकराल प्रेत यह कहते हुए कि “आप रहें, मैं जाता है।" नतमस्तक हो विलीन हो गया।
उसी दिन से वह स्थान निरुपद्रव हो गया। माफीदार परिवार ने भी उस स्थान को धर्म-ध्यान में बरतने के लिए रखा। पधारने वाले साधु-साध्वियां प्रायः वहीं ठहरते आये । लेखक को भी वहाँ कई बार ठहरने का अवसर मिला। मेरे तो देवता आप हैं
मानजी स्वामी का सर्वाधिक प्रसिद्ध चमत्कार 'खेड़ी' का माना जाता है।
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