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________________ घोर तपस्वी पूज्यश्री रोड़जी स्वामी | १२६ प्रति न भी मिली, तथापि हम इतना तो अवश्य मान ही सकते हैं कि श्रद्धा-भेद का बढ़ता प्रवाह घोर तपस्वी श्री रोड़जी स्वामी के त्यागपूर्ण तेजस्वी व्यक्तित्व से अवरुद्ध अवश्य हो गया । उसका बढ़ाव ही नहीं रुका, कहीं-कहीं पुनरुद्धार भी हुआ । महानता के मूर्तस्वरूप घोर तपस्वी श्री रोड़जी स्वामी तपश्चर्या के तो साक्षात् मूर्त स्वरूप थे ही, सहिष्णुता भी उनमें अद्भुत थी । पाठक उनके जीवन के विशेष प्रसंगों को, जिन्हें आगे उद्धृत किया गया है, पढ़ेंगे तो पायेंगे कि स्वामीजी का जीवन सहिष्णुता का ऐसा विराट् समुद्र था, जिसका कहीं किनारा ही नहीं । अनेकों जगह उन्हें पत्थरों से मारा गया, रेत में दबा दिया गया, फिर भी वे नितान्त अक्षुब्ध रहे । हमें भगवान महावीर के जीवन में एक निराली क्षमता का चित्र मिलता है जिसका उदाहरण विश्व में कहीं मी अन्यत्र नहीं मिलता । भगवान महावीर के बाद साधकों के जीवन में अनेकों उपसर्गों की लम्बी परम्परा है। किन्तु विकट उपसर्गों की घटाओं के मध्य श्री रोड़जी स्वामी की अद्भुत क्षमता का जो मुस्कुराता स्वरूप उपलब्ध होता है, सचमुच उसकी होड़ वाला चरित्र अन्यत्र नहीं मिल सकता | पाठक स्वयं सोचें कि किसी मुनि के कई दिनों का तप हो पारणा करने का अवसर आया हुआ हो और उसे कह दिया जाए कि वह मकान छोड़कर निकल जाए। उस स्थिति में जबकि अन्य स्थान उपलब्ध होने की सम्भावना न हो, मुनि को कैसी स्थिति बने । सचमुच ऐसी स्थिति श्री रोड़जी स्वामी में बनी थी। ऐसे कठिन प्रसंग में भी अविचल धैर्य बनाए रखना, अकषाय भाव में लीन रहना महानता की सर्वोच्च स्थिति नहीं तो और क्या है ? श्री रोड़जी स्वामी सहिष्णु ही नहीं दयालु भी थे। यों तो मुनि मात्र दयालु होते हैं, किन्तु तपस्वीराज की दयालुता की तुलना नहीं । कई जगह उपसर्ग खड़े करने वाले मूढजनों को अधिकारियों ने पकड़कर दण्डित करने का प्रयास भी किया, किन्तु ज्यों ही स्वामीजी को ज्ञात होता, वे तत्काल दयार्द्र हो उठते । वे अपने अपराधी को मुक्त कराने को बेचैन हो जाते । कई बार उन्होंने अपने अपराधियों को कारागार से मुक्त कराने को आहार तक त्याग दिया। पर दुःख कातरता का ऐसा मूर्त स्वरूप बहुत कम देखने में आता है। स्वामीजी "आत्मवत् सर्वभूतेषु" को चरितार्थ करने वाले समभाव सिद्धान्त पर चलने वाले एक सफल पथिक थे। स्वामीजी साध्वाचार की साधना में प्रखर थे। निरन्तर आत्म- गवेषणा तथा तप में रत रहने वाले सत्पुरुष के साध्वाचार की उग्रता के क्या कहने ? उन्हें प्रमाद का स्वल्पांश भी स्वीकृत नहीं था । साम्प्रदायिक द्वेष के एक विशेष प्रसंग में किसी द्वेषी ने एक बार स्वामीजी को कलंकित करने की असफल कुचेष्टा भी की, किन्तु स्वामीजी सम्पूर्ण निर्णय होने तक आहार त्याग कर बैठे। प्रश्न उनके जीवन का ही नहीं, मुनि परम्परा के कलंकित होने का था । स्वामीजी अन्य उपसर्गों के प्रति जहाँ अतिशय नम्र तथा सहिष्णु थे, उक्त प्रसंग के अवसर पर चट्टान से भी अधिक कठोर बन गये। आहार तभी ग्रहण किया जब सच्चाई जनता के सामने आ गई । एक ही व्यक्ति में इतने विलक्षण गुणों का सम्मिलित विकास सचमुच उसे महानता के शिखर पर चढ़ा देता है । स्वामीजी अद्वितीय ( = एकाकी) स्थिति में भी कुछ समय विचरे, ऐसा नृसिंहदासजी महाराज रचित ढाल से ज्ञात होता है । " कठिनाइयों के उस युग में एकाकी विचरण करना सामान्य बात नहीं थी। बहुत बड़े धैर्य और साहस के बिना एकाकी विचरण करना सम्भव नहीं था । १. काल कितना इक विचरिया जी एकल विहारी आप । परीसा तो खम्यां अति घणां जांरां टल्या सर्व सन्ताप ॥ dha oooooooo0000 parma * oooooooooooo 40000FCCCD
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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