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________________ १२८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज- अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० MAP C..... ए AUTCOIN सन्त श्री भीखणजी की श्रद्धानुसार ये बातें एकान्त पाप हैं। इनका धर्म या धर्म से सम्बन्धित किसी साधना के साथ दूर तक भी कोई सम्बन्ध नहीं। श्री भीखणजी की यह श्रद्धा, प्ररूपणा जैन धर्म के मान्य सिद्धान्तों के एकदम प्रतिकूल थी। आचार्य श्री रघुनाथजी महाराज ने उन्हें अपने विचार बदलने को कहा । किन्तु वे अपने विचारों की पुष्टि और प्रचार करते रहे । परिणामस्वरूप श्री भीषणजी को पूज्य श्री रघुनाथजी महाराज की सम्प्रदाय से अलग होना पड़ा। तेरह व्यक्तियों के प्रारम्भिक सहयोग से एक नये पंथ को जन्म दिया गया, जिसका नाम संख्या के आधार पर 'तेरह पंथ' (राजस्थानी भाषा में 'तेरा पंथ') रख दिया । मेवाड़ तेरापंथ का उद्गम-स्थल है। इस पंथ के उद्गम में जहाँ श्री भीखणजी की प्रमुख भूमिका रही, वहाँ राजनगर के कतिपय श्रावकों का सहयोग भी कम नहीं रहा । तेरापंथ सम्मत श्रद्धा के प्रचार में राजनगर के श्रावकों ने बड़ा काम किया। राजनगर के आस-पास के गांवों में प्रचार की यह लहर बढ़ती जा रही थी। मेवाड़ में उस समय मेवाड़ सम्प्रदाय के अग्रज मुनिराज श्री सुखजी स्वामी, श्री हीरजी स्वामी आदि मुनिराजों का संघ विचरता था। बढ़ते हुए श्रद्धा-भेद के प्रवाह का तत्कालीन मुनि-मण्डल ने दृढ़ता के साथ प्रतीकार किया ही होगा, तभी वह प्रवाह एक सीमित प्रदेश में फैलकर रह गया, आगे नहीं बढ़ सका। तथापि कुल मिलाकर तेरापंथ को अपने प्रचार का जो लाभ मिला वह कम नहीं था। पहाड़ी प्रदेश के लगभग प्रत्येक गांव में दो विचारधारा वन चुकी थीं, जिससे सामाजिक राग-द्वेष का दावानल मभक उठा था। राजनैतिक दृष्टि से यह जमाना मेवाड़ के लिये कोई अच्छा जमाना नहीं था। आसपास के हमलावरों से मेवाड़ तंग था। मुगलों के भयंकर आक्रमणों से जर्जर मेवाड़ बड़ी कठिनाई में अपना समय बिता रहा था, चैन नहीं था। देश में मुगल साम्राज्य का अन्त होकर अंग्रेजी शासन की स्थापना हो रही थी। केन्द्र कमजोर था। अत: देश के भीतर कई विग्रह चल रहे थे । आपाधापी के उस युग में मेवाड़ बड़ी हानि उठा रहा था। मेवाड़ के राज्यसिंहासन पर जो महाराणा समासीन थे वे एक कमजोर राज्य के शासक थे। उन्हें बार-बार छिटपुट आक्रमणों का सामना करना पड़ता था। राजनैतिक दृष्टि से कमजोर राज्य के नागरिकों का मनोबल भी प्रायः कमजोर हुआ करता है। उस स्थिति में कोई भी प्रवाह उन्हें बहाकर ले जा सकता है। मेवाड़ के जनमानस की भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। तभी श्रद्धा-भेद का एक प्रवाह आया, जिसका संचालन कुछ धनाढ्य गृहस्थ कर रहे थे। मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेश का भोला जनमानस उसमें बहने लगा। तपस्वी श्री रोड़जी स्वामी अपनी तपोसाधना में निरत थे। उन्होंने दीक्षित होते ही बेले-बेले पारणा करने की प्रतिज्ञा ली। एक माह में दो अठाई भी कर लिया करते थे। प्रतिवर्ष दो मास खमण (महीने की तपश्चर्या वर्ष में दो बार) करने का निश्चय किया। इस तरह उन्होंने लगभग अपने सम्पूर्ण जीवन को तपोसाधना में समर्पित कर दिया। तपश्चर्या में रत रहते हुए भी समाज में जो कुछ हो रहा था, उससे वे अनजान नहीं थे। श्रद्धा-भेद के बढ़ते प्रवाह को वे बड़ी धीरता के साथ देख रहे थे। उस अवसर पर उन्होंने सद्बोध देकर कई भटकते हओं को स्थिर भी किया। कुछ वर्षों पहले उदयपुर में पुरातत्त्ववेत्ता स्व. पं० कान्तिसागरजी से मेरा मिलना हुआ। उन्होंने बताया कि तेरापंथी आचार्य भारीमलजी तथा श्री रोड़जी स्वामी की चर्चा की एक लिखित पांडुलिपि मेरे पास है। मैं ढूंढ़कर आपको बताऊँगा। मैंने उसे प्राप्त करने का पुनः प्रयत्न किया । उन्होंने उसे ढूंढ़ा भी, किन्तु वह प्रति मिली नहीं । यदि वह प्रति मिल जाती तो कई प्रश्नों का अनायास ही समाधान हो जाता । ....... PA ACOR Jan Educaton internasona O vale ESO USE
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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