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१०६-पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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इनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने पूर्ण की थी। दिगम्बर ग्रन्थों में चित्तौड़ का कई बार उल्लेख आया है। 'पउम चरिअं' में तीन बार उल्लेख हुआ है । दक्षिण भारत में भी कई शिलालेख मिले हैं जिनमें चित्रकूटान्वय साधुओं का उल्लेख है। ये सूरस्थगण के थे। जैन की त्रिस्तम्भ चित्तौड़ से सम्बन्धित एक खंडित प्रशस्ति हाल ही में मैंने 'अनेकान्त' में प्रकाशित की है। इसमें श्रेष्ठि जीजा के पुत्र पूर्णसिंह द्वारा उक्त कीर्ति स्तम्भ की प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। इस लेख में जैन साधु विशाल कीर्ति, शुभ कीर्ति, धर्मचन्द्र आदि का उल्लेख है जिन्हें दक्षिण भारत के राजा नारसिंह का सन्मान प्राप्त था। अतएव पता चलता है कि ये साधु भी दक्षिणी भारत से सम्बन्धित थे।
कन्नड़ का एक अप्रकाशित शिलालेख भी हाल ही में मुझे चित्तौड़ के एक जैन मन्दिर में लगा हुआ मिला था जिसे मैंने श्रद्धेय भुजबली शास्त्रीजी से पढ़वाया था। यह लेख उनके मत से १५वीं शताब्दी का है। केवल जिनेश्वर की स्तुति है । महाकवि हरिषेण ने अपने ग्रन्थ 'धम्मपरिक्खा' में महाकवि "पुष्पदंत चतुर्मुख और स्वयं भू को स्मरण किया है, अतएव पता चलता है कि इन कवियों की कृतियों को यहाँ बड़े आदर से पढ़ा जाता था। इसी समय मेवाड़ में महा- . कवि डड्ढा के पुत्र श्रीपाल हुये । इनका लिखा प्राकृत ग्रन्थ 'पंथ संग्रह' बड़ा प्रसिद्ध है।
मेवाड़ में ऋषभदेवजी का मन्दिर बड़ा प्रसिद्ध और प्राचीन है। इसे दिगम्बर, श्वेताम्बर और वैष्णव सब ही बड़ी श्रद्धा से मानते हैं । इस मन्दिर में शिलालेख अधिक प्राचीन नहीं मिले हैं। मण्डप में लगे शिलालेखों में एक वि०स० १४३१ का है । इसमें काष्ट संव के भट्टारक धर्मकीति के उपदेश से शाह बीजा के बेटे हरदान द्वारा जिनालय के जीर्णोद्धार का उल्लेख है । अलाउद्दीन खिलजी गुजरात के आक्रमण के समय इसी मार्ग से गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने इस मन्दिर को खंडित कर दिया हो जिसे कालान्तर में महाराणा खेता के समय में जीर्णोद्धार कराया था। इसी मण्डप में एक अन्य लेख वि०सं० १५७२ का है जिसमें भी काष्टा संघ के भट्टारक यशकीति के समय काछल गोत्र के श्रेष्ठ कडिया पोइया आदि द्वारा कुछ जीर्णोद्धार कराने का उल्लेख है। वि०स०१५७२ में ही महादेव कुलिकाओं के मध्य स्थित ऋषभनाथ का मन्दिर काष्टा संघ के नन्दि तट गच्छ के विद्यागण के भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति के समय बघेरवाल श्रेष्ठि संघी आल्हा ने बनाया था। इसी आगे की देव कुलिकायें वि०सं० १५७४ में उक्त सुरेन्द्र कीर्ति के समय हुबँडजाति के भट्टारक सुरेन्द्रकीति के उपदेश से बनाई थीं। मूर्तियों में अधिकांश पर लेख हैं जो विसं० १६११ से १८६३ तक के हैं । लेख वाली मूर्तियों में ३८ दिगम्बर सम्प्रदाय की और १८ श्वेताम्बरों की है। महाराणा जवानसिंह के एक बहुत बड़ा महोत्सव हुआ जिसमें श्वेताम्बरों ने वहाँ विशाल ध्वज दण्ड लगाया था, मन्दिर मराठों की लूट से भी प्रभावित हुआ था।
नागदा मेवाड़ में प्राचीन नगर है । यहाँ आलोक पार्श्वनाथ का दिगम्बर जैनमन्दिर १०वीं शताब्दी का है । यह मन्दिर ऊँची पहाड़ी पर बना है। इसके आस-पास पहले दिगम्बरों की बस्ती थी। 'मुनिसुन्दर की गुर्वावली' से पता चलता है कि इस तीर्थ को समुद्रसूरि नामक श्वेताम्बर साधु ने दिगम्बरों से लिया था। शीलविजय और मेघ ने अपने तीर्थमालाओं में इस तीर्थ की बड़ी प्रशंसा लिखी है। यहाँ के पार्श्वनाथ मन्दिर का प्राचीनतम उल्लेख वि०सं० १२२६ के बिजोलिया के शिलालेख में है । इस पार्श्वनाथ मन्दिर में वि०सं०१३५६ और १३५७ के शिलालेख भी लगे हुए हैं जो दिगम्बर साधुओं के हैं । मध्यकालीन मन्दिरों में विसं० १३३१ के आसपास बना देव कुलिकाओं सहित श्वेताम्बर मन्दिर जिसमें वि०सं० १४८७ का महाराणा मोकल के राज्यकाल का एक अप्रकाशित शिलालेख भी लगा हुआ है। इसी मन्दिर के पास महाराणा कुभा के राज्यकाल में बना अद्भुत का मन्दिर है। यह मन्दिर अद्भुत जी की विशाल काय 6 फीट की पद्मासन काले पत्थर की प्रतिमा के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है। यह प्रतिमा श्रेष्ठी सांरग ने बनवाई थी जो देलवाड़ा का रहने वाला था । यहाँ और भी कई खंडित मन्दिर हैं । एकलिंग मन्दिर के वि०सं० १०२८ के लकुलीश शिव मन्दिर के लेख में वर्णित है कि उस समय एक शास्त्रार्थ शैवों-बौद्धों और जैनों के मध्य हुआ था । सौभाग्य से इस घटना का उल्लेख काष्ट-संघ की लाट बागड़ की गर्वावली में भी है जिसमें वर्णित किया गया है कि राजा नरवाहन के राज्य में चित्तौड़ में प्रभाचन्द नामक साधु ने विकट शैवों को हराया था। ये प्रमाचन्द नामक साधु कहां के थे, पता नहीं चला है, किन्तु एकलिंग जी के पास नागदा होने से वहाँ से भी सम्बन्धित होने की कल्पना की जा सकती है।
मध्यकालीन प्राचीन नगरों में देलवाड़ा (मेवाड़) बड़ा प्रसिद्ध है। इसे जैन ग्रन्थों में देवकुलपाटक लिखा गया है । यह बड़ा समृद्ध नगर था और नागदा के खंडित होने पर अधिकांश लेख या तो आहड़ चले गये या यहाँ आ बसे । इसकी समृद्धि का वर्णन सौम सौभाग्य काव्य, गुरु गुण रत्नाकर आदि मध्यकालीन काव्यों में है। प्रसिद्ध आचार्य सोम सुन्दर सूरि यहाँ कई वार पधारे थे। सबसे पहले वि०सं० १४५० में आये थे। उस समय राणा लाषा के मन्त्री रामदेव
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