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श्री रामवल्लभ सोमानी, [ प्रसिद्ध इतिहास अन्वेषक ]
जयपुर
वीर भूमि मेवाड़ में धर्म के बीज संस्कार रूप में जन्मजात ही है। भले ही वहां का राजधर्म 'भागवतधर्म' रहा हो, किन्तु जैनधर्म के बीज भी उस भूमि में अत्यंत प्राचीन है। प्रस्तुत में प्रमाणों के आधार पर मेवाड़ में जैन धर्म के प्राचीनतम अस्तित्व का वर्णन है।
मेवाड़ में जैनधर्म की प्राचीनता
मेवाड़ से जैनधर्म का सम्बन्ध बड़ा प्राचीन रहा है। बड़ली के वीर सं० ८४ के लेख में, जिसकी तिथि के सम्बन्ध में अभी मतैक्य नहीं है, मध्यमिका नगरी का उल्लेख है । अगर यह लेख वीर संवत का ही है तो मेवाड़ में भगवान महावीर के जीवनकाल में ही जैन धर्म के अस्तित्त्व का पता चलता है। मौर्य राजा सम्प्रति द्वारा भी नागदा व कुम्भलगढ़ के पास जैन मन्दिर बनाने की जनश्रुति प्रचलित है। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में हुए देवगुप्त सूरि का सम्बन्ध मेवाड़ क्षेत्र से ही था । जैन धर्म का यहाँ व्यापक प्रचार पूवीं छठीं शताब्दी में हुआ। उस समय राजस्थान में सांस्कृतिक गतिविधियों में विशेष चेतना आई । धीरे-धीरे जालोर, भीनमाल, मंडोर, पाली, चित्तौड़, नागौर, नागदा आदि शिक्षा और व्यापार के प्रमुख केन्द्रों के रूप में विकसित होने लगे । सिद्धसेन दिवाकर मेवाड़ में चित्तौड़ क्षेत्र में दीर्घं काल तक रहे थे । इनकी तिथि के सम्बन्ध में विवाद है। जिनविजयजी ने इन्हें ५३३ ई० के आसपास हुआ माना है । इनके द्वारा विरचित ग्रन्थों में न्यायावतार प्रमुख है। यह संस्कृत में पद्यबद्ध है और तर्कशास्त्र का यह प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें की गई तर्कशास्त्र सम्बन्धी कई व्याख्यायें आज भी खंडित है। इन्हें जैन तर्कशास्त्र का जादिपुरुष कहा गया है। इनके अन्य ग्रन्थों में कल्याणमन्दिर स्तोत्र और द्वात्रिंशिकाएं प्रमुख है । हरिभद्रसूरि भी चित्तौड़ से सम्बन्धित है । ये बहुत विद्वान थे। इनकी तिथि में भी विवाद रहा है। मुनि जिनविजयजी ने सारी सामग्री को दृष्टिगत रखते हुये
इन्हें विक्रम की आठवीं शताब्दी में माना जो ठीक प्रतीत होता है । इनके द्वारा विरचित ग्रन्थों में समराइच्च कहा और धूर्त्ताख्यान कथा साहित्य के रूप में बड़े प्रसिद्ध हैं । दर्शन और योग के क्षेत्र में भी इनकी देन अद्वितीय है । इनमें षडदर्शन 'समुच्चय, शास्त्रवार्ता समुच्चय, अनेकान्त जयपताका, धर्म-संग्रहिणी, योग शतक, योगविंशिका योग दृष्टि समुच्चय आदि मुख्य हैं । इनकी कृतियों में अस्पष्टता नहीं है । ये अपने समय के बड़े प्रसिद्ध विद्वान रहे हैं। उस समय चित्तोड़ पर मौर्य शासकों का अधिकार था और पश्चिमी मेवाड़ में गुहिल वंशी शासकों का ।
बौद्ध इतिहासकार तारानाथ के अनुसार शीलादित्य राज के समय मरुक्षेत्र में मूंगधर द्वारा में कला की पश्चिमी शैली का विकास हुआ। शीलादित्य राजा कौल था। इस सम्बन्ध में मतभेद रहते हैं, कार्ल खांडलवाल इसे हर्ष शीलादित्य (६०६-६४७ ई०) से अर्थ मानते हैं, जबकि यू. पी. शाह मंत्रक राजा शीलादित्य मानते हैं किन्तु इन दोनों शासकों का मेवाड़ और मरुप्रदेश पर अधिकार नहीं था । अतएव यह मेवाड़ का राजा शीलादित्य था । इसके समय में वि. सं. ७०३ के शिलालेख के अनुसार जैनक महत्तर ने जावर में अरण्यवासिनी देवी का मन्दिर बनाया था । कल्याणपुर सामला जी, ऋषभदेवजी, नागदा आदि क्षेत्र पर उस समय निश्चित रूप से गुहिलों का अधिकार था । अतएव कला का अद्भुत विकास उस समय यहाँ हुआ ।
चित्तौड़ और मेवाड़ का दक्षिणी भारत से भी निकट सम्बन्ध रहा था। कई दिगम्बर विद्वान उस समय चित्तौड़ में कन्नड़ क्षेत्र से आते रहते थे । इन्द्रनन्दिकृत श्रु तावतार से पता चलता है कि प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वान ऐलाचार्यं यहाँ दुर्गं पर रहते थे । इनके पास शिक्षा प्राप्त करने के लिये टीका पूर्ण की थी । षट्खंगम की कुल ६ टीकायें हुई थीं, इनमें वीर सेनाचार्य ने 'कषाय प्राभृत' की 'जय धवला टीका' भी प्रारम्भ की थी। जिसे ये पूर्ण नहीं कर पाये और इनके बाद
वीरसेनाचार्य आये थे और यहाँ से बड़ौदा जाकर धवला धवला अन्तिम है। इसमें लगभग ७२,००० श्लोक हैं ।
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