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एकनिष्ठा के समक्ष शिवजी को भी झुकना पड़ा। पार्वती का प्रेम सार्थक हुआ। उसे महादेव के सदृश पति मिला और उनका लोकोत्तर दिव्य प्रेम भी।
शिवजी के क्रोधानल से कामदेव को भस्म होता देखकर रति मूर्छित हो गयी थी। जब वह सचेत हुई तब तक महादेव अन्तर्धान हो चुके थे और पार्वती को उसके पिता हिमालय ले जा चुके थे। सद्यः विधवा हुई रति अपने पति त्रिभुवन जयी पति, कमनीय कलेवर कामदेव के स्थान पर पुरुषाकृति राख की ढेर देखकर विह्वल हो धरती पर लोटने लगी, उसके बाल बिखर गये, उसका कातर क्रन्दन सुनकर मानो वनभूमि भी रोने लगी। उसे लगा कि उसका हृदय अत्यन्त कठोर है, प्रियतम की यह स्थिति देखकर भी अभी तक वह विदीर्ण नहीं हुआ। वह कामदेव को सम्बोधित करते हुए कहने लगी कि मैंने तो तुम्हें अपने प्राण सौंप दिये थे, फिर तुम सेतुबन्ध को तोड़कर जल प्रवाह जिस तरह कमलिनी को पीछे छोड़कर त्वरित बह जाता है, उसी तरह मुझे छोड़कर कहां चले गये। तुम तो कहा करते थे कि मैं तुम्हारे हृदय में बसती हूं, लगता है वह केवल छल था, उपचार मात्र था। नहीं तो बताओ तुम तो जलकर अंगहीन... अनंग हो गये और मैं अभागिन ज्यों की त्यों रह गयी। यदि मैं सचमुच तुम्हारे हृदय में बसी होती तो तुम्हारे साथ जलकर मुझे भी राख हो जाना चाहिए था। बड़ी पीड़ा से भरी उक्ति है यह, जो प्रियतम के कथन की लाक्षणिकता को अभिधा में बदल देना चाहती
नारी हृदय की विरह-वेदना भी कालिदास ने बहुत सजग, बहुत संवेदनशील लेखनी से अंकित की है। वैसे तो नर और नारी दोनों के हृदयों में प्रेम का प्रस्फुटन बहुत सी बातों में समान ही होता है फिर भी दोनों में शीलगत कुछ अन्तर होता ही है। कालिदास ने पुरुष की तुलना में नारी का प्रेम अधिक मर्यादित और निष्ठायुक्त चित्रित किया है। तदनुरूप उसके विरह वर्णन में भी अधिक गंभीरता दृष्टिगोचर होती है। कालिदास ने दुष्यन्त, पुरुरवा के विरह वर्णन में उन्हें अपने अपराध के प्रति पश्चात्ताप परायण भी अंकित किया है। यह निष्ठा हीनता जन्य अपराध बोध कालिदास के किसी नारी पात्र के विरह वर्णन में नहीं है। हां, अपने सौन्दर्य के प्रति अभिमान का तथा प्रेमगर्विता की भूमिका में पति पर किये गये प्रणय शासन का अपराध बोध जरूर उनकी विरहकातर उक्तियों को और मर्मस्पर्शिता प्रदान करता है।
पार्वती को अपने सौन्दर्य-सामर्थ्य का उचित गौरव बोध था। जब उन्होंने देखा कि उनका सौन्दर्य कामदेव के पूरे सहयोग के बावजूद शिवजी के हृदय पर बहुत हल्का प्रभाव ही डाल सका और उससे क्षुब्ध हुए शिवजी ने कामदेव को भस्म ही कर दिया, तब उन्होंने अपने सौन्दर्य को धिक्कारा और यह स्वीकार कर लिया कि महादेव का प्रेम केवल सौन्दर्य के बल पर नहीं पाया जा सकता... वह वस्तुत: 'अरूपहार्य' है। सच तो यह है कि उन्हें भी इस दुर्घटना के बाद ही प्रेम के और गहरे पक्ष का अनुभव हुआ। कालिदास के अनुसार शिवजी के ऊपर चलाया गया कामदेव का बाण उनकी हुंकार से डर कर लौटा और कामदेव के भस्म हो जाने के बावजूद वह पार्वती के हृदय को क्षत-विक्षत कर गया। उससे धधकी विरह ज्वाला को शमित करने में ललाट एवं मस्तक पर चन्दन का प्रगाढ़ प्रलेप एवं तुषाराच्छादित शिला पर शयन भी असमर्थ सिद्ध हुए। अपने रूंधे हुए गले से जब पार्वती शिव चरित्र के गीत गाने लगती तब उस करुण स्वरलहरी को सुनकर वनवासिनी किन्नर राजकन्याएं रो पड़ती थीं। शिव के ध्यान में डूबी पार्वती सपने भी शिवजी के ही देखा करती। मुश्किल से एक क्षण के लिए आंख लगने पर स्वप्न में साथ छोड़कर जाते हुए शिवजी को देखकर पार्वती चौंककर उठती और कहां जा रहे हो नीलकंठ! कहकर उनके कंठ में अपनी बाहुएं डालकर उन्हें रोकने का प्रयास करती। अपने ही बनाये हुए शंकर के चित्र को वास्तविक मानकर उन्हें उपालंभ देने लगती कि विद्वजन तो तुम्हें सर्वगत सर्वज्ञ कहते हैं तब फिर कैसे तुम अपने प्रेम मे डूबी इस जन की पीड़ा को नहीं जान पाते! अद्भुत हैं ये दोनों श्लोक :त्रिभागशेषासु निशासु च क्षणं निमील्य नेत्रे सहसा व्यबुध्यत। क्व नीलकण्ठ ब्रजसीत्यलक्ष्यवागसत्यकण्ठार्पित बाहुबन्धना।। यदा बुधैः सर्वगतस्त्वमुच्यसे न वेत्सि भावस्थमिमं कथं जनम्। इति स्वहस्तोल्लिखितश्च मुग्धया रहस्युपालभ्यत चन्द्रशेखरः॥25 ___ इसी प्रखर विरह वेदना ने पार्वती को प्रेरणा दी कि जिसे रूप से नहीं रिझाया जा सका उसे सर्व-समर्पण-परक तपस्या से प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। पार्वती की कठिन तपस्या और उसकी सहज
हृदये वससीति मत्प्रियं, यदवोचस्तदवैमि कैतवम्। उपचारपदं न चेदिदं, त्वमनङ्गः कथमक्षता रतिः ।।26 __ स्मृति हमारे हृदय में छिपे हुए भावों को कैसे उजागर करती है, इसका एक अत्यन्त प्रभविष्णु उदाहरण प्रस्तुत किया है कालिदास ने रति के एक कथन के द्वारा! जिसके प्रति किसी का सहज प्रेम होता है, वह दूसरे काम करता हुआ भी बीच-बीच में अनायास ही उसे देख लेता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया बिना कुछ कहे हृदय के प्रेम को व्यक्त कर देती है। रति को याद आता है कि कामदेव जब गोद में धनुष रखकर बसन्त से हंस-हंसकर बातें करता रहता था, अपने बाण सीधे करता रहता था तब बीच-बीच में नयनों की कोरों से मुझे देख भी लिया करता थाऋजुतां नयत: स्मरामि ते शरमुत्सङ्गनिषण्णधन्वनः। मधुना सह सस्मितां कथां नयनोपान्तविलोकितं च तत् ।।27
तुलसी ने वन गमन के समय राम-सीता के प्रेम की एक ऐसी ही झलक दी है। ग्राम वधुएँ लक्ष्य करती हैं कि वनमार्ग में जाते समय राम स्वाभाविक रूप से बार-बार सीता की ओर देख लेते हैं। वे राम के इस सहज स्नेहपूर्ण आचरण पर मुग्ध होती हैं और जानते हुए भी कि उनसे सीता का क्या सम्बन्ध है इस सृष्टि के लिए पूछ ही तो लेती
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं। पूछत ग्रामबधू सिय सों, कहो सांवरे से सखि रावरे को हैं ?28
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / १४
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