________________
नृपेन्द्र प्रताप सिंह, XI-c
आकांक्षा तथा पुरुषार्थ मनुष्य को परिस्थितियों की प्रतिकूलता और साधनों की कमी के कारण निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि प्रगति की नींव दशाओं और साधनों पर निर्भर नहीं करती है। उसकी नींव है मनुष्य की प्रबल आकांक्षा और अनुकूल पुरुषार्थ। जिसके पास ये दो साधन हैं उसकी प्रगति को कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता। लालसा और आकांक्षा में बड़ा अन्तर होता है। लालसा एक ज्वार की लहर की तरह होती है जो कुछ समय के पश्चात् विलीन हो जाती है। इससे यह आभास होता है कि लालसा का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है। आई और गई, यही लालसा की गति होती है। निष्ठा और लगन भी नहीं होती है। लेकिन पवित्र और सत्य आकांक्षा एक व्रत के समान होती है जिसमें दृढ़ता और लगन होती है और इसका रूप एक होता है तथा लक्ष्य भी एक होता है। सच्ची आकांक्षा का व्यक्ति अपनी शक्ति, साधन का उपयोग एक निश्चित पथ की ओर करता है। __ आज यदि विद्वान् बनने की इच्छा होती है लेकिन कल व्यापारी बनने की, कभी साधु बनने की और कभी नेता बनने की, कभी डाक्टर बनने की और कभी समाज सेवी बनने की तो समझना चाहिए कि उसके दिल में किसी विषय के प्रति सच्ची आकांक्षा नहीं है। इस तरह की इच्छाओं और अभिलाषाओं से कोई उन्नति नहीं होती है।
किसी एक विषय में सराहनीय प्रगति के लिए मनुष्य को सारी जिन्दगी लगा देनी पड़ती है। उसे अनेक इच्छाओं को खत्म करके किसी एक विषय पर अपनी सारी शक्ति को केन्द्रित कर देनी चाहिए। आकांक्षा
के पक्की हो जाने के बाद उसकी सफलता का पथ और प्रयत्न शुरू होता है। एक निश्चित पथ के होने से उसमें बुद्धि, बल, ज्ञान, अनुभव, तत्परता का बोध होता है जिससे प्रगति की सफलता के रास्ते में रुकावट नहीं आती है। धीरे-धीरे प्रगति होने लगेगी और अभीप्सित लक्ष्य समीप आने लगेगा। यदि इसके विपरीत परिश्रम और पुरुषार्थ की कमी रही तो उन्नति का रास्ता अवरुद्ध होकर जीवन को असफल बना देता है। इसलिए किसी विद्वान ने कहा है कि लक्ष्य की सफलता पुरुषार्थ पर ही निर्भर है। लेकिन तब, जब उसके लिए पूरा पुरुषार्थ किया जावे। अधूरे पुरुषार्थ से समय की बर्बादी होती है एवं जीवन में असफलता हाथ लगती है। अधूरे पुरुषार्थ के अनेक कारण हैं जैसे शारीरिक कमजोरी, मानसिक कमजोरी, आलस्य, अज्ञानता, समय का मूल्य न समझना, अनियमितता आदि। इस प्रकार की कमजोरियों एवं कमियों को दूर करने का एक ही उपाय है, कुछ समय तक मन को नियमपूर्वक काम में लगाये रखा जाय। एक क्षण भी उसे खाली न रहने दिया जाय।
आलस्य की बढ़ोत्तरी आराम द्वारा होती है। मनुष्य जितना अधिक आराम करता है उतना ही आलसी होता है। शक्ति, उत्साह आराम करने से नहीं बल्कि परिश्रम करने से प्राप्त होता है। परिश्रम में स्वस्थता का गुण निहित है। पर्याप्त परिश्रम और सही विश्राम जीवन की सफलता का मूलमंत्र है जिसके द्वारा मनुष्य किसी भी लक्ष्य को सरलतापूर्वक पा सकता है।
ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो शरीर से पूरी तरह स्वस्थ्य होते हैं, लेकिन पुरुषार्थ पूरा नहीं कर पाते हैं तथा अपने को उचित ठहराते हुए लम्बी-लम्बी बातें करते रहते हैं। वास्तव में ऐसे सब कामचोर हैं। कुछ ऐसे भी कामचोर होते हैं जो अपनी कमियों को दूसरों पर थोपा करते हैं और जो अपनी बात करने की पटुता से लोगों को लुभाया करते हैं। ऐसे निकम्मे और कामचोर लोग पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं। ___ मानव जीवन बहुत ही मूल्यवान है और उसकी सही उपयोगिता उससे भी मूल्यवान है। इन्सान को ऐसे पथ का पथिक होना अति आवश्यक है, जिससे मानव, समाज तथा देश को लाभ मिले। इसके लिए शारीरिक, मानसिक कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर महान पुरुषार्थ करना बहुत ही आवश्यक है। मनुष्य अपने जीवन में जैसा प्रयत्न करता है उसी प्रकार के फल का वह सच्चा हकदार भी होता है। प्रगति के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ने के लिए अदम्य आकांक्षा और पुरुषार्थ का होना आवश्यक है।
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्यार्थी खण्ड /८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org