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क्षेत्र से मूलदेव, वायुदेव, विशाखा देव एवं धनदेव के ढलाई के सिक्के प्राप्त हुए हैं। तत्पश्चात् हमें नरदत्त, ज्येष्ठस्त, शिवदत्त एवं उसके उत्तराधिकारियों के सिक्के प्राप्त हुए हैं। उधर वत्स क्षेत्र से भावघोष, अश्वघोष आदि अठारह शासकों द्वारा जारी मुद्राएं प्राप्त की गई हैं। इसके पश्चात् भी हमें अन्य शासकीय वर्गों का पता चलता है, जिसमें भद्रमघ, वेश्रवन, शिवमघ आदि प्रमुख हैं। अंतत: इस क्षेत्र से हमें रूद्र देव के सिक्के प्राप्त होते हैं जो कुषाण सिक्कों के समकक्ष हैं।
परवर्ती शुंग एवं कण्व शासकों द्वारा मुद्रित आहत ताम्र मुद्राएं हमें विदिशा-एरन क्षेत्रों से मिलती हैं। इनमें सातवाहन शासक सत एवं सातकरणी द्वारा जारी सिक्के प्रमुख हैं। सातवाहनों के पश्चात् पूर्व क्षेत्रीय क्षत्रपों द्वारा भी 350 ई0 तक सिक्के जारी किए गए। प्रथम शताब्दि ई0 पू0 में इस क्षेत्र को शकों द्वारा अधिगृहीत किया गया था। हमूगाम, वालक, माहू एवं शोम शासकों द्वारा जारी की गईं मुद्राएं अर्वाचीन ही प्राप्त हुई हैं। इन मुद्राओं के प्राप्त होने से प्राचीन जैन वाङ्गमय में वर्णित शक आक्रमणों की गाथाओं की सम्पुष्टि होती है। इसी प्रकार इस क्षेत्र में पद्मावती भी एक स्वतंत्र शासन के रूप में पल्लवित हुई जहां से विशाखादेव, महता, शबलसेन, अमित सेन एवं शिवगुप्त के प्रथम श0 ई0 पूर्व से लेकर प्रथम श0 के मध्य तक सिक्के प्रचलित हुए। द्वितीय शताब्दी में हमें नाग शासन के कम से कम बारह राज्याधिकारियों के सिक्के प्राप्त हुए हैं जो चौथी शताब्दी तक निरन्तर प्रचलन में रहे। महाकौशल (त्रिपुरी) क्षेत्र से हमें मित्र, मघ, सेन एवं बोधि वंशजों के सिक्के मिलते हैं। उड़ीसा क्षेत्र से भी तृतीय शताब्दि में मुद्रित पूरी-कुषाण सिक्के प्राप्त हुए हैं।
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् दक्षिण भारतवर्ष के पाण्ड्या क्षेत्रों से क्षेत्रीय शासक अफसरों द्वारा, जिनको महारथी कहा जाता था, चांदी के आहत सिक्कों के सदृश मुद्राएं जारी की गईं। डाइ से बने सिक्के भी पाण्ड्या , आंध्र एवं चोल क्षेत्रों में द्वितीय श0 ई0 पू0 में जारी हुए। तत्पश्चात् आलेखित सिक्के भी इन क्षेत्रों से जारी हुए। मैसूर-कनारा क्षेत्र से सर्वप्रथम सदाकन नामक महाराष्ट्रीय परिवार द्वारा शीशे के सिक्के जारी किए गए। तत्पश्चात् एक अन्य परिवार 'आनन्द' द्वारा करवार क्षेत्र से सिक्के जारी किए गए। महाराष्ट्र क्षेत्र के कोल्हापुर से महारथी कुर, विलिवाय कुर, शिवालकुर, गोतमी पुत्र आदि के सिक्के जारी किए गए। अन्य एक महारधी परिवार हस्ती द्वारा भी शीशे के सिक्के जारी किए गए। इसी समय के लगभग हमें कुछ राजकीय परिवारों के सिक्के कोट लिंगल में मिलते हैं जिनमें राजा उपाधि से विभूषित किया गया है। इनमें कामवायसिरि, गोभद्र एवं सामगोप, सत्यभद्र एवं दासभद्र के सिक्के प्रमुख हैं। इसी तरह ‘साद' परिवार के सिक्कों पर भी राजा की उपाधियां मिलती हैं। विदर्भ से हमें राजा सेवक के सिक्के प्राप्त हुए हैं। इनके पश्चात् सातवाहनों अथवा सातकरनी राजाओं के सिक्कों की एक श्रृंखला प्राप्त होती है। ये शुंग तथा कण्व शासकों के पतन के पश्चात् 27 ई0 पू0 में विदिशा में शासनस्थ हुए तथा अपने राज्य को पश्चिमी भारत एवं दक्कन में फैलाया। श्री सती (श्वाति) एवं श्री
सातकरनी (गौतमी पुत्र सातकरनी) ने अपना राज्य पूर्वी भारत तथा दक्कन में विस्तृत किया। उन्होंने अपने राज्य के विभिन्न स्थानों से विभिन्न प्रकार के सिक्के तांबे, चांदी, पोटीन तथा शीशे की धातुओं में प्रचलित किए। इनके पश्चात् इनके कम से कम दस उत्तराधिकारियों ने क्रमश: सिक्के जारी किए।
दक्षिण में आंध्र शासन के समकालीन रोम में बने सोने एवं चांदी की मुद्राएं रोमन व्यापारियों द्वारा भारतवर्ष में लाई जाती थीं। ये मुद्राएं दक्षिण भारतवर्ष में बहुलता से पाई गई हैं। इन सिक्कों पर कभी-कभी भारतीय शासकों के ठप्पे भी पाए जाते हैं। तीसरी शताब्दि में हमें पूर्वी दक्कन से इक्ष्वाकु शासकों के सिक्के प्राप्त होते हैं। इसके पश्चात् हमें तमिल देश से कालभ्र शासकों के सिक्के प्राप्त होते हैं और कुछ विद्वानों के मतानुसार इन शासकों ने तीसरी शताब्दि से सातवीं शताब्दि के मध्य सिक्के जारी किए। उपर्युक्त समय में शालंकायन राजा चंद्रवर्मन, विष्णु कुंडीन तथा पूर्वी चालुक्य विसमसिद्धि के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इसी समय में हमें रामकश्यप गोत्रीय राजाओं के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
पश्चिमी भारत में सातवाहनों के समकालीन शक पीढ़ी में पूर्वी क्षत्रपों के सिक्के बहुलता से प्राप्त हुए हैं। उनका राज्य गुजरात, सौराष्ट्र एवं मालवा तक फैला हुआ था। उन्होंने 310 ई0 तक 250 वर्षों तक शासन किया तथा अपने सिक्के जारी किए। उनकी दो अलग-अलग शाखाओं की जानकारी हमें उनके सिक्कों ही से प्राप्त होती है। प्रथम शाखा जिसे क्षहरत कहा जाता है तथा दूसरी शाखा करद्दमक नाम से पहचानी जाती है। प्रथम पीढ़ी में केवल मात्र दो शासकों भूमक एवं नाहपना के ही सिक्के प्राप्त हुए हैं जबकि दूसरी शाखा के कम से कम सताईस शासकों की मुद्राएं अब तक प्राप्त हो चुकी हैं। प्रथम शाखा के प्रथम शासक भूमक ने तांबे के सिक्के जारी किए जबकि उसके उत्तराधिकारी नाहपना ने चांदी की धातु में सिक्के प्रसारित किए। करद्दमक क्षत्रपों ने चांदी, तांबे, शीशे तथा पोटीन धातुओं के सिक्के जारी किए। इन क्षत्रपों के समकालीन एक राजा ईश्वरदत्त की मुद्राएं प्राप्त हुई हैं जिन पर इनकी विरुदावली महाक्षत्रप बताई गई है। यह सम्भवत: उपर्युक्त पूर्वी क्षत्रपों के राज्य की सीमाओं पर कहीं राज्य करते रहे होंगे।
चौथी शताब्दि के प्रारम्भ में हम भारतीय इतिहास के स्वर्णकाल में पहुंचते हैं जब पूर्वी उत्तर प्रदेश अथवा बिहार के किसी छोटे संभाग से गुप्त साम्राज्य का उदय होता है। जो लगभग दो शताब्दियों से अधिक तक स्थापित रह सका। इनका आदि पुरुष पुरुष गुप्त हुआ जिनका प्रपौत्र चन्द्रगुप्त प्रथम 319 ई0 से 350 ई0 तक शासनस्थ रहा और अपने राज्य को सुदूर क्षेत्रों तक विस्तीर्ण किया। उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने 350 ई0 से 370 ई0 तक शासन करते हुए अनेक युद्धों में विजयश्री प्राप्त की। उसने अश्वमेध यज्ञ भी किया। इसके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने 376 ई0 से 414 ई0 के मध्य अपने साम्राज्य की सीमाओं को पश्चिम में कश्मीर तक तथा पूर्व में उड़ीसा तक विस्तृत किया। उसके पुत्र कुमार गुप्त ने 414 ई0 से 450 ई0 के मध्य अपने शासन काल में दो-दो बार अश्वमेध यज्ञ किया तथा अपने साम्राज्य में मध्य भारत के कुछ भूभाग
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ९५
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