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गुजरात एवं सौराष्ट्र के हिस्सों को संलग्न किया। लेकिन उसके राजत्वकाल के उत्तरार्द्ध में हूणों ने उसके साम्राज्य के कतिपय भूभाग को उससे छीन लिया। फलस्वरूप उसके उत्तराधिकारी स्कंदगुप्त को 455 ई0 से 467 ई0 तक के अपने शासन समय में अधिकतर अपनी सीमाओं की सुरक्षा में ही व्यस्त रहना पड़ा। अंत में उसने हूणों पर विजय प्राप्त करके दम लिया । बुद्धगुप्त 496 ई0 में शासनारूढ़ हुआ। 500 ई0 तक गुप्त साम्राज्य का पराभव प्रारम्भ हो चुका था और चंद्रगुप्त तृतीय, प्रकाशादित्य, वैन्यगुप्त, नरसिंह गुप्त, कुमार गुप्त तृतीय एवं विष्णु गुप्त शासकों के समय में क्रमश: लुप्त प्रायः हो गया, इन गुप्त शासकों की मुद्राएं अधिकांशतः सोने की प्राप्त होती हैं किन्तु चंद्रगुप्त द्वितीय ने सर्वप्रथम चांदी की मुद्राएं भी 409 ई० में प्रारम्भ कीं इसी प्रकार तांबे से बनी मुद्राएं केवल मात्र तीन शासकों समुद्र गुप्त, चंद्र गुप्त द्वितीय एवं कुमार गुप्त प्रथम की प्राप्त हुई हैं। शीशे से बनी मुद्राएं चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमार गुप्त प्रथम एवं स्कंदगुप्त की प्राप्त हुई हैं। इन्हीं शासकों के समकालीन ताम्र मुद्राएं अहिछत्र से हरिगुप्त तथा जयगुप्त की प्राप्त हुई हैं। ये संभवत: शासकीय गुप्त वंशजों की ही किसी शाखा विशेष से रहे होंगे। इसी प्रकार विदिशा तथा एरन संभागों से कुछ छोटे ताम्र सिक्के प्राप्त हुए हैं जिन पर रामगुप्त का नाम अंकित है। यह चंद्रगुप्त द्वितीय का भाई था चीन की सीमाओं पर बसने वाली जनजाति हूण की एक शाखा ने पांचवीं शती में हिन्दुकुश पारकर गांधार क्षेत्र को हस्तगत कर लिया था तथा गुप्त साम्राज्य के भूभाग की ओर बढ़ने लगे थे। लेकिन गुप्त सम्राट स्कंद गुप्त ने उनका डटकर मुकाबला किया तथा अंततः उन्हें अपनी सीमाओं से परे हटा दिया। इन हूणों ने पुनः एक बार छठी शताब्दि के प्रारम्भ में तोरमाण के नेतृत्व में भारतवर्ष पर आक्रमण किया तथा पंजाब के रास्ते से उन्होंने पूर्वी भारत तथा मालवा के एक विशाल भूभाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल ने उत्तरी भारत के भी हिस्सों को अधीनस्थ कर शकाल में अपनी राजधानी स्थापित किया। उसने 528 ई0 में कश्मीर पर भी अपना राज्य स्थापित की। उसने 528 ई0 में कश्मीर पर भी अपना राज्य स्थापित किया। इन हूणों ने हस्तगत भूभाग पर अपने सिक्के प्रचलित किए। इन्होंने परवर्ती कुषाण तथा गुप्त सिक्कों सदृश चांदी तथा तांबे के सिक्के जारी किए।
उधर पश्चिम भारत में गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरांत कुटक शासकों ने गुजरात के दक्षिणी भूभाग को हस्तगत कर चांदी की मुद्राएं जारी कीं । दहरा सेन तथा व्याघ्र सेन नामक राजाओं की उपर्युक्त रौप्य मुद्राएं हमें पांचवीं शताब्दि के उत्तरार्द्धकाल में मिली हैं। इसी प्रकार पूर्वी भारत में मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र तथा संलग्न उड़ीसा क्षेत्र से भी हमें सोने के पतले सिक्के पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और छठी शताब्दी के प्रारंभ के प्राप्त होते हैं। इन सिक्कों से हमें वराह राजा, भावदत्त राजा और अर्थपति राजा के बारे में जानकारियां उपलब्ध होती हैं। इन्हीं की एक अन्य शाखा के राजाओं— प्रसन्नमात्र, महेन्द्रादित्य और क्रमादित्य के भी सिक्के पाए गए हैं।
हीरक जयन्ती स्मारिका
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गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत के राजनैतिक क्षेत्र में अत्यधिक उथल-पुथल परिलक्षित होती है और मुस्लिम शासकों के बारहवीं शताब्दी में आने से पूर्व के काल में सिक्कों की निरन्तरता में भी ह्रास हुआ। इसी समय के लगभग बंगाल में समाचर देव एवं जयगुप्त ने सोने की मुद्राएं छठी शताब्दि में जारी की सातवीं शताब्दि में गौड़ राजा शशांक निम्न स्वर्ण धातु के सिक्के ढाले । हमें एक अन्य राजा बीरसेन का भी सिक्का इसी समय में प्राप्त होता है। इसके पश्चात् भी गुप्त राजाओं के अनुकरण वाले सिक्के बंगाल, आसाम आदि क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं। 810 ई० के आसपास हमें देवपाल राजा के सोने के सिक्के भी मिलते हैं।
उधर उत्तर प्रदेश से हमें थानेश्वर के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्द्धन के सिक्के प्राप्त होते हैं। तत्पश्चात् आठवीं नवीं सदी के मध्य वत्सदमन, वप्पुका, केशव और आदि वराह की मुद्राएं प्राप्त होती हैं। गुप्त शासकों से मिलती-जुलती रौप्य मुद्राएं कान्यकुब्ज से ईसान वर्मन, सर्ववर्मन और अवन्ति वर्मन की 550 से 600 ई0 के मध्य की प्राप्त होती है, इसी तरह प्रभाकर वर्धन और शिलादित्य की थानेश्वर से प्राप्त होती हैं। गुप्त सम्राटों की पश्चिमी भारतीय परिमाण की रौप्य मुद्राओं का कलचूरी साम्राज्य के कृष्न राजा ने अनुसरण किया। इस प्रकार के सिक्के जिन पर एक ओर बैल अंकित है, भारत के विशाल भूभाग मालवा, नासिक, मुंबई, सतारा, सलसेत, बेतुल, अमरावती, राजस्थान इत्यादि क्षेत्रों से पाए गए हैं।
आठवीं सदी में हमें चांदी के छोटे-छोटे सिक्के मध्य भारत एवं पूर्वी भारत से प्राप्त हुए हैं। इन्हें प्रतिहार राजा 'वत्सराज' ने प्रचलित किया था। इसी प्रकार के सिक्के बारहवीं श0 में गुजरात एवं सौराष्ट्र से चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज के नाम से मिलते हैं । हूणों द्वारा प्रसारित सिक्कों के अनुसरण किए सिक्के इस समय में राजस्थान, गुजरात एवं मालवा से बहुतायत में उपलब्ध हुए हैं। इन्हें हिन्द-शरीनियन सिक्कों
नाम से जाना जाता है। प्रारम्भ में ये सिक्के पतले किन्तु बड़े आकार के होते थे परन्तु शनै: शनै: इनका आकार छोटा होता गया। इन उत्तरार्द्ध सिक्कों को "गधैया" सिक्कों के नाम से जाना जाता है। उधर उत्तर प्रदेश से हमें विग्रहपाल के सिक्के प्राप्त हुए हैं। इसके साथ ही हमें प्रतिहार राजाओं — भोज प्रथम, तथा उसके पुत्र विनय कपाल के सिक्के भी मिले हैं। उक्त समय में कोंकण क्षेत्र से शील हरा राजा छित्तराजा के गधेया प्रकार के सिक्के भी प्रकाश में आए हैं। इसी प्रकार के सिक्के राजस्थान से भी प्राप्त हुए हैं। इन पर सोमलेखा का नाम मुद्रित है। जो संभवतः 1133 ई0 में राज्य कर रहे साकंभरी राजा अजय पाल देव की पत्नी रही होगी। गधैया सिक्के जो मध्य प्रदेश से प्राप्त हुए हैं। वे सम्भवतः ओंकार मान्धाता द्वारा जारी किए गए थे। ये सिक्के प्रायः तांबे अथवा निम्न रौप्य धातुओं से बने थे, जिन्हें बिलन कहा जाता है। इसी समय में पंजाब क्षेत्र से तांबे की धातु के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं जिन पर जिसु का नाम मुद्रित किया गया है। कश्मीर में आठवीं TO में कारकोता राजाओं ने तांबे एवं चांदी मिश्रित सोने के सिक्के
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विद्वत् खण्ड / ९६
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