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संस्कृति को ओढ़ी हुई वैसी ही लगती हैं जैसी वह बंदरिया जो लूगड़ा-घाघरा
ओढ़ पहन नाच का ठुमका भरती हुई अपने हाथ के दर्पण में अपना मुखड़ा देखती मुलकायमान होती हैं। विवाह का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रसंग अब महिला संगीत, नाच, नखरे और तमाशे अधिक देने लग गये हैं।
अपनी कलाओं और कलामय कृतियों को हम इसलिए ढूंढते सहेजते
फिर रहे हैं कि मौका आने पर उन्हें बड़े हाथों में बाहर कर सकें। हमें तो हमारी मुट्ठी से ही सरोकार है जो रुपयों से बंधी हुई हो। हो भी क्यों न, बचपन से ही हमने अपनी हथेली में मेंहदी का रुपया रचाते-रचाते अपने ऊपर अपनी कलाओं का रंग चढ़ाया है। फर्क यह है कि हमारी पहचान का रुपया अब मेंहदी में नहीं, हमारी जान में, पहचान में, सब जहान में खनखनाने लग गया है।
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ३४
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