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खेतुड़ी नाम अनसुना, अचर्चित होने के कारण इसकी जगह 'खेलुड़ी' कर दिया गया।
हाड़ौती क्षेत्र का, कंजर बालाओं का चकरी नृत्य पहले पूरा हाड़ौती भी नहीं देख पाया था किन्तु गत दस वर्षों में इसका सिक्का चला तो ऐसा कि यह सारी दुनियां में व्याप्त हो गया। इस नृत्य को करने वाली कोई डेढ़ दर्जन बालाएं विदेश चली गईं। यह नृत्य चकरी खाती हुई अति तेज घूमरों के लिए प्रसिद्ध है। नृत्यों में इतनी कठिन क्रियाओं को गूंथने में ये बालाएं ही सिद्ध हो सकती हैं। इस नृत्य के साथ ढोलक, नगारी, ढप, झांझ बजती है। यह नगारी, ढोलक भी हर कोई नहीं बजा सकता। जैसी टेढ़ी, सीधी, लंगड़ी चकरियां ली जाती हैं, बैठकें की जाती हैं, फूंदी फेरी जाती हैं वैसी ही नगारी और ढोलक बजाई जाती है। इसके साथ फाग गीत गाये जाते हैं। नृत्यमग्न बालिकाएं स्वयं ही फाग गाती हैं। इन फागों की संख्या ही सौ से ऊपर है।
गहराई में जाने से पता चला कि इस नृत्य का चकरी नाम बहुत बाद का दिया हुआ है। मूल नाम तो इसका राई था। राई यानी रात भर किया जाने वाला नृत्य। विवाह-शादियों में आज भी कंजर बालिकाएं रात भर यह नृत्य करती हैं। पूरे दिन और पूरी रात यह नृत्य लगातार करने का रिकार्ड इस जाति में है।
जगह-जगह आकाशवाणी के केन्द्र खुलने से जहां लोककलाओं का व्यापक प्रसारण हुआ, वहां जैसा-तैसा जो कुछ मिला वह भी परोसा जाने लगा। प्रारम्भ में जब जयपुर में यह केन्द्र प्रारम्भ हुआ तब विशिष्ट विधाओं के तपेखपे कलाकार खोज-खोजकर वहां लाये जाते थे, किन्तु ज्यों-ज्यों अन्यत्र केन्द्र खुले, उनके साथ कचरपट्टी के कार्यक्रम जुड़ते गये। लोकगीतों के नाम पर तो सर्वाधिक अनर्थ हुआ। गाने वाले घराने धरे रह गये और उनके स्थान पर कई-नई अधकचरी बेमेल भौंडी आवाजें घुस आई। गीतों के साथ जो विशिष्ट गायकी, उसकी बंदिश, उसके तराने, मुरकियां तथा अनुशासन था, वह सब हवा हो गया। गीत भी नये और फिल्मी तर्जे व अन्दाज के बजाये जाने लगे। अल्लाजिलाई बाई ने मांड गीतों में लोकप्रियता प्राप्त की तो वह गायकी और ठसक नहीं होते हुए भी जगह-जगह मांड गायिकाएं पैदा हो आई।
यही स्थिति खड़ताल वादन के साथ हुई। प्रारम्भ में एक सिद्दीक थे जो बाद में 'पद्मश्री' हो गये। उनके देखादेख अन्य भी खड़ताल बजाने लग गये। इस बीच कोहिनूर नामक बालक ने इस क्षेत्र में प्रवेश कर खड़ताल बजाते-बजाते नाचना प्रारम्भ कर दिया। प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कोहिनूर को प्रोत्साहन स्वरूप घड़ी भेंट की तो कोहिनूर दुनियां का कोहिनूर बन गया। अब उसी के नाम से एक और लड़का भी खड़ताल बजाकर असली-नकली कोहिनूर के रूप में चल निकला है।
ऐसी ही स्थिति नृत्यांगना गुलाबो की है। अब एक गुलाबो की बजाय अन्य गुलाबो भी प्रदर्शन देती हैं। देखने वाले भ्रम में बने रहते हैं। कोहिनूर और गुलाबो अपनी व्यावसायिकता में दौड़े जा रहे हैं। लोककलाओं की जगह-जगह, एक ही नाम की, चलाऊ नाम की, फर्मे खुल गई हैं। पेढ़ियां चल निकली हैं। उन पेढ़ियों के अनुसार पंडे
भी हाजिर हैं। इसमें रही सही कसर सरकार ने पर्यटन को आगे कर पूरी कर दी। जगह-जगह मेले और महोत्सव आयोजित कर रेगिस्तान के ऊंट के आभूषण 'गोरबन्द' को भीली महिलाओं का आभूषण करने तक में कोई संकोच नहीं खाया तथा इन कलाओं और कलाकारों को इज्जतदार और आदरणीय बनाने के लिए 'पद्मश्री' तक पकड़ा दी।
टेलीविजन के 'विजन' को किसके साथ टेली' करें। लगता है उसकी __सर्वोच्च प्राथमिकता ही लोककलाओं को अपंग बनाने की है। राजस्थान
के भपंग जैसे वाद्य को अपंग सुनकर मुझे रसखान कवि का वह छंद... 'मानुष हो तो वही रसखान' बार-बार याद आता है। ऐसे कार्यक्रमों को देखते समय मैं गांधीजी के तीन बंदरों वाले खिलौने को अपने टी.वी. से अड़ाये रखता हूं।
रावण ने जैसे गुस्से में आकर पूरी मंडोवर नगरी उलट दी थी वैसे ही हमारे कलाबाज लोग पूरी लोककलाओं को उलट-पुलट करने में लगे हैं। लोक की इस संपदा को लोक से छीनकर अपनी करने में लगे हैं। कला और संस्कृति के साथ दुर्भाग्य तब शुरू हो जाता है जब लोग उसकी सार्वजनिकता का दोहन कर अपनी निज की पहचान देना प्रारम्भ कर देते हैं। यह बहुत पुरानी बात नहीं है, जब व्यक्ति अपने को अनाम करता हुआ समष्टि के लिए सर्वस्व हो जाता था और उसी में अपना सुख, कल्याण और संतोष कर बैठता था। हजारों गीत गाथाएं हरजस साक्षी हैं कि ये सब व्यष्टि के वैभव होते हुए भी समष्टि के लिए 'बहुजनहिताय बहुजन सुखाय' बने हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मीरां के पदों की संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि नहीं होती। कबीर के भजन निरक्षरों की महफिल में रात्रि जागरण के तंदूरों पर भक्तिरस की तन्मयता और ताजगी देते नहीं मिलते। आज कहां मीरां लिख रही हैं? कहां कबीर लिख रहे हैं ? कहां चन्द्रसखी या कि अणदा रैदास लिख रहे हैं पर कमाल है कि उनके नाम पर आज भी और आने वाले कल भी लिखे जाते रहेंगे।
एक तरफ वे लोग हैं जो इस अगम साहित्य, सहज संस्कृति और सुगम कला में निरन्तर अपना अनाम योग देते हुए बूंद को समुद्र बनाने में लगे हैं तो दूसरी ओर बजट को बाफने के बहाने कई लोग लोककलाओं की खेती में असरपसर गये हैं। कोई नहीं जान पाया कि हजारों प्रदर्शन देने वाली, लोक जन को लुभाने वाली 'गगन सवारी' नामक कठपुतली नाटिका के रचनाकार जगदीशचन्द्र माथुर थे। ऐसे ही प्रयोग अपने भारतीय लोककला मंडल में लोककलाविद देवीलाल सामर ने किये। कुछ मैंने भी किये। औरों ने भी किये पर ये नाम अपवादी हैं।
यह हमारी आदत सी बन गई है कि जिस किसी चीज का हल्ला होता है तो हम विविध विधा-कलाओं में उसे ढूंढने लग जाते हैं। हमने लोककलाओं में पर्यावरण देखा। योग को उदा। व्यायाम को उकेरा। जनचेतना को मुखरित किया। पड़ों के टाईपीस बनाये और नकली आभूषणों की कलाकारी में असली आभूषणों की चमक बांध दी। साहित्य का इतिहास बनाते-बनाते हमने लोक का इतिहास ही विस्मृत कर दिया।
अब लोकसंस्कृति एक फैशन बन गई है। विदेशी महिलाएं भारतीय
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ३३
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