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________________ आभूषण है। सच्चा अहिंसक सिंह की भाँति निर्भीक निडर तथा शक्तिशाली होता है। आज आवश्यकता है अहिंसा के व्यापक स्वरूप को ठीक-ठीक समझने की। अहिंसा को केवल निवृत्ति अर्थात् निषेधात्मक रूप में ही नहीं अपितु प्रवृत्ति अर्थात् विधेयात्मक रूप में भी उसे देखा जाय। निवृत्ति रूप में किसी को कष्ट न पहुँचाना ही अहिंसा है किन्तु प्रवृत्ति रूप में कमजोर, अहसाय, दीनदुःखी, हताश और सताए हुए व्यक्ति की रक्षा करना अहिंसा का एक अंग है। अस्तु किसी को बचाना कायरों का नहीं, शूरवीरों का परम कर्तव्य है। वास्तव में अहिंसक आत्मजयी होता है। आज जब सारे विश्व में अशान्ति हाहाकार मचा हुआ है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को हड़पने की प्रक्रिया में व्यस्त है अस्तु त्रस्त-संत्रस्त हैं। सारी शक्ति अस्त्र-शस्त्र के निर्माण में लगी हुई है। वहाँ अहिंसा का उद्घोष निश्चित ही वरदान सिद्ध होगा। इतिहास के पन्ने बोलते हैं कि जहाँ हिंसा से कुछ नहीं हुआ, वहाँ अहिंसा ने ही आकर सामञ्जस्य स्थापित किया। वास्तव में अहिंसा जीवन का एक अनिवार्य अंग है। वह प्राणिमात्र के हित की संवाहिका है। आज हमारी दृष्टि जब जैनसमाज पर जाती है तो यह देखकर दंग रहजाना होता है कि जिसका आचार और विचार पक्ष इतना समुज्ज्वल व समन्वय वादिता से अनुप्राणित है वहाँ भी भेद-प्रभेद। इसका मूलकारण है 'आचार' आचार' की इतनी अधिक व्याख्याएँ हुई हैं कि उनसे अनेक विभाजन उठ खड़े हो गए। जबकि आज आवश्यकता है आचार के भीतर प्रतिष्ठित जो मूल आत्मा है उसको समझने की, हृदयगंम करने की, आत्मसात करने की अर्थात् लक्ष्य की। दिगम्बर, श्वेताम्बर स्थानकवासी, तेरापंथी आदि अन्ततोगत्वा सबका लक्ष्य तो एक ही है -अनन्त आनन्द की प्राप्ति। कर्म से विमुक्ति मार्ग विभिन्न हो सकते हैं किन्तु मार्य तो एक ही है, तो जो समीचीन लगे, आत्म औल लोकहित में जो उपयुक्त हो उसका अनुसरण कर जीवन यात्रा को तय करना ही सार्थक है। इस प्रकार जैनाचार पर जब हम गहराई के साथ चिन्तन करते हैं तो तीन बिन्दु पाते हैं- एक दर्शन, दूसरा ज्ञान और तीसरा चारित्र। ये तीनों जब सम्यक्त्व पूर्ण होकर एक रूप हो जाते हैं तब मोक्ष का मार्ग खुलता है। व्यक्ति का अन्तिम पुरुषार्थ 'मोक्ष' है। 'मोक्ष' अर्थात् बंधनों से मुक्ति अर्थात् शाश्वत स्वतन्त्रता। जैन आचार जहाँ एक ओर व्यक्ति में नैतिक संस्कारों को, समत्व को, विश्वास-श्रद्धा को अपने प्रति निष्ठावान होने को, कर्तव्यदायित्व के बोध आदि को जगाता है वहीं दूसरी ओर अनन्त चतुष्टय के द्वार भी खोलता है। निश्चय ही 'जैनाचार' आज भी अपनी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता को समेटे हुए है। 'मंगलकलश' ३९४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़ (उ.प्र) -२०२००१ (२०६) Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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