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________________ व्यक्ति को चाहे वह गृहस्थ रूप में हो, चाहे वह साधना-पथ पर हो, सुव्यवस्थित-मर्यादित जीवन चर्या के लिए व्रतों की शरण में जाना होता है। व्रत से व्यक्ति में समत्व जगता है अर्थात् मानसिक और शारीरिक सन्तुलन अर्थात् तनावों से मुक्त जीवन जीने की पद्धति विकसित होती है। आज संसार के समक्ष 'तनाव' की सबसे बड़ी समस्या है। तनाव जीवन के प्रत्येक चरण में गहराता जा रहा है। इसकी समाप्ति के लिए अनेक अनुसंधान हो रहे हैं। व्रतों की इस दिशा में एक अहम् भूमिका रही है। प्राचीनकाल से लेकर अर्वाचीन तक हमारे आध्यात्मिक गुरु तनावों से मुक्ति के लिए व्रतों पर सदा बल देते आए हैं। यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि यदि हम व्रतों का वैज्ञानिक ठंग से अपने जीवन में उपयोग करते हैं तो वे हमारे लिए सर्व प्रकार की स्वस्थता तो प्रदान करते ही हैं साथ ही प्रसुप्त ओज का जागरण भी होता है। ओज प्रदीप्त से जीवन प्रमाद से रिक्त किन्तु सम्यक् पुरुषार्थ से सिक्त होता है। वास्तव में जन-जन के अभ्युत्थान में व्रतों की भूमिका उपयोगी सिद्ध हुई है। जैन आचार प्रत्येक व्यक्ति को सप्त व्यसन (जुआ, मांसाहार, मद्यपान, चोरी, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन तथा शिकार) का त्याग तथा अष्ट प्रवचनं तीन गुप्ति (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति) पूर्ण जीवन जीने के लिए निर्देश देता है। इनका परिपालन एक प्रकार से व्रतों की परिधि में परिगणित किया जा सकता है। जैन आचार के ये पवित्र विधान आज भी प्रासंगिक है। सप्तव्यसनी में विवेक, धीरता, सहनशीलता, लगन, आत्म विश्वास तथा स्मरण शक्ति आदि मानवीय गुणों का नितान्त अभाव दिखाई देता है। बिना इन गुणों के क्या वह अपना और अपने राष्ट्र का विकास कर सकता है? कदापि नहीं। व्यसन तो एक ऐसा आवेश है जिसके जोश में व्यक्ति अपना होश तो खो बैठता ही है साथ ही वह समाज और राष्ट्र का एक अंग होने के कारण उसे भी गर्त में ले जाता है। वास्तव में व्यसन मानवता का एक अभिशाप है। अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक जीवन मूल्यों को क्षतविक्षत करने वाला यह पिशाच अपनी पाशुविकता के अतिरिक्त समाज को और क्या दे सकेगा। आनन्द रश्मियाँ तो व्यसन मुक्ति जीवन से ही विकीर्ण होती हैं। दूसरा पवित्र विधान है अष्ट प्रवचन माता। समिति-गुप्ति पूर्ण जीवन से जीवन में प्रामाणिकता आती है। व्यक्ति अपनी हर क्रिया के प्रति सजग और सचेष्ट रहता है। वह किसी को भी दुःख, पीड़ा पहुँचाए बिना अपना जीवन यापन करता है। उसका जीवन आर्तया, रौद्रता की अपेक्षा, हितकारी वातों में ही बीतता है। उसका मनन-चिन्तन रागद्वेष से रहित, माध्यस्थ भावों से संम्पक्त रहता है। वास्तव में ऐसा जीवन स्वयं अपने लिए तो उपयोगी है ही साथ ही राष्ट्र के लिए वरेण्य भी है। विचार करें, जैन आचार के इन पवित्र विधानों में मूल हैं -अहिंसा। ये सब अहिंसा के ही आयाम हैं। अहिंसा का विस्तार है तप, संयम और व्रत। अहिंसा मानव जीवन का स्वभाव है। स्वभाव प्रच्छन्न तो हो सकता है किन्तु समाप्त नहीं होता। भय, संदेह, अविश्वास, असुरक्षा, पारस्परिक वैमनस्य, शोषण, अत्याचार तथा अन्याय आदि की वह्नि जो आज प्रज्वलित है, उसका मूल कारण है जीवन में अहिंसा का अभाव। अहिंसा में क्षमा, मैत्री, प्रेम, सद्भावना, सौहार्द्रता, एकता, वीरता तथा मृदुता आदि मानवीय गुण विद्यमान रहते हैं। इसके द्वारा ही विश्व के समस्त प्राणियों में क्षमा करने की भावना तथा शक्ति जाग्रत होती है। अधिकांश लोगों की यह धारणा है कि अहिंसा निर्बलों (कायरों) का अस्त्र है। यह उन लोगों का कोरा भ्रम है। अहिंसा तो वीरों का (२०५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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