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________________ शब्द विचार सुह - प्राचीन जैन साहित्य में सुह शब्द शुभ और सुख का अपभ्रंश है। अनेक स्थानों पर 'सुह शब्द का अर्थ भी स्पष्ट नहीं हो पाता है। शुभ शब्द में शु का सु हो गया तथा भ की अल्प प्राण ध्वनि का लोप हो कर शेष 'ह' महाप्राण ध्वनि रही। सुख शब्द में ख की अल्प प्राण ध्वनि का लोप शेष महाप्राण ध्वनि 'ह' रही। शुभ और सुख दोनों का 'सुह' रूप हो गया। अर्थ लगाने के लिए संदर्भ देखना पड़ता है। सुह कम्म अर्थात शुभ कर्म, सुह-निलअ-सुख - णिलय अर्थात सुख का घर । सुख का घर - तीर्थंकर । · सूर प्राचीन जैन साहित्य में शूर और सूर्य का अपभ्रंश रूप सूर मिलता है। सूर ( शूर) वीर के अर्थ में भी है और सूर सूर्य के अर्थ में भी है। सूर्य शब्द में से 'य' का लोप होने से सूर बना । सूरकांति का अर्थ सूर्य की कांति भी हो सकता है। तपस्वी शूर की कांति से भी मण्डित होते हैं और सूर्य की कांति से भी मण्डित होते हैं । एक तपस्वी, संसारी कर्मों से युद्ध भूमि के वीर की तरह लड़ता है, यह अर्थ भी सही है और एक तपस्वी अपनी तपस्या से सूर्य की कांति से मण्डित होता है, यह अर्थ भी सही है। डॉ. धन्नालाल जैन सिय श्री सीता और श्वेत शब्दों का जैन साहित्य में 'सिय' शब्द रूप आया है। श्री, लक्ष्मी, शोभा, सीता आदि के लिये 'सिय' शब्द प्रयुक्त होने से अर्थ बाधा उत्पन्न होती है तथा किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं। सिय जोय का अर्थ लक्ष्मी दर्शन भी हो सकता है और सीता-दर्शन भी हो सकता है। राम कथा का महत्व जैन दर्शन साहित्य होने से, एक अर्थ विचार पर नहीं पहुँचा जा सकता है। सिय शब्द विशेषण के रूप में आने पर तो अर्थ श्वेत स्पष्ट हो जाता है । Jain Education International सुर सुर (देव) और सुरा के लिये 'सुर' रूप ही आया है। सुशंद सुरानंद का अर्थ देवों का आनंद भी है और सुरा (मदिरा) का आनंद भी हैं। जैन साहित्य की दृष्टि से तो हम सुरांद का अर्थ, देवों का आनंद लगा रहे हैं। पर सुरांद का अर्थ सुरा (मदिरा) का आनंद भी है। रीतिकालीन साहित्य में सुरांद का अर्थ सुरा का आनंद ही लगेगा। सम्मत्त सम्यक्तव और सुमति का प्राचीन जैन साहित्य के 'सम्मत्त' शब्द रूप मिलता है । सुम्मत्त अर्थात सुसम्मत अर्थात सम्यगदर्शन । सम्यगदर्शन से ही जीव मोक्ष का अधिकारी होता है। मोक्ष, जैन-दर्शन का मूल है। तीर्थंकर आदि मोक्ष- गामी हैं। मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होने में भी सुख है। सुख और दुख भाव - वाचक संज्ञा होने से अति सूक्ष्म भाव हैं। सुख और दुख मन की स्थितियाँ भी है, जो परिस्थितियों से उत्पन्न होती हैं। एक जीव के लिये जो स्थिति सुख देने वाली होती है वही दूसरे जीव के लिये दुख देने वाली भी होती हैं। (२०७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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