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________________ कि क्रियाएँ जो अज्ञान धरातल पर केन्द्रित हैं, उन्हें समूल नष्ट कर जो उपादेयी हैं उन्हें अंगीकार कर जीवन चर्या को समृद्ध किया जाए क्योंकि कोरी क्रियाएं, निरर्थक साधनाएँ व्यक्ति, साधक को उबाऊपन उत्पन्न करने के अतिरिक्त और क्या दे सकेंगी। 'जैन-आचार' में जो बातें समाविष्ट हैं वे निश्चय ही आत्महित एवं लोकहितकारी हैं, साथ ही परम वैज्ञानिक उपयोगी एवं उपादेयी भी हैं। आचार (क्रिया) और विचार (ज्ञान) ये दो संवाहक जीवन-रथ को संचालित करते हैं। जैन-आचार का मूल है अहिंसा और विचार है -अनेकान्त। अहिंसा एक व्यापक शब्द है। वह जैन धर्म का प्राण है। अहिंसात्मक जीवन को केन्द्रित करने के लिए जैन धर्म में तप व्रत और संयमादि के स्वरूप और महत्ता का सम्यक् रूप से उद्घाटन हुआ है। हम वर्तमान सन्दर्भ में इनकी क्या उपयोगिता है, आदि को ध्यान में रखते हुए संक्षिप्त चर्चा करेंगे। ___ तप भारतीय साधना का प्राण तत्व है क्योंकि उससे व्यक्ति का बाहर-भीतर समग्र जीवन परिष्कृत, परिशोधित होता हुआ उस चरम बिन्दु पर पहुँचता है जहाँ से व्यक्ति, व्यक्ति नहीं रह जाता है अपितु परमात्म अवस्था अर्थात् परमपद, सिद्धत्व को प्राप्त हो जाता है। वास्तव में तप में तृप्ति है, इसकी साधना से लब्धि-उपलब्धि, ऋद्धि-सिद्धि, तैजस् शक्तियाँ, अगणित विभूतियाँ सहज ही प्रकट होने लगती हैं अर्थात् तप से सर्वोत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है। इस जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसकी प्राप्ति तप से न हो सके। तपः साधना से समस्त बाधाएँ, अरिष्ट उपद्रव, शमन तथा क्षमा शान्ति, करुणा प्रेमादि दुर्लभ गुणजीवन में व्याप्त होते हैं अतः यह लौकिक और अलौकिक दोनों ही हित का साधक है। तपः साधना व्यक्ति को स्थूल से सूक्ष्म की ओर वहिर्जगत से अन्तर्जगत की ओर ले जाने में प्रेरणा-स्फूर्ति का संचार करती है क्योंकि बाहर कोलाहल-हलचल है, दूषण-प्रदूषण है, जबकि भीतर निःस्तब्धता, निश्चलता और शुद्धता है। जैनदर्शन-धर्म में तप के समस्त अंगों पर वैज्ञानिक विश्लेषण हुआ है। आत्म-विकास हेतु साधना का निरूपण जैन दर्शन का मुख्य लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य हेतु जो साधना की जाती है वह साधना वस्तुतः तप कहलाती है। इस दर्शन में सांसारिक सुखों, फलेच्छाओं, एषणाओं, सांसारिक प्रवंचनाओं हेतु किए जाने वाले तप की अपेक्षा सम्यग्दर्शन (आस्तवादितत्वों को सही-सही रूप में जानना और उन पर श्रद्धान रखना) ज्ञान (पर-स्व भेद बुद्धि को समझना) चारित्र (भेद विज्ञान पूर्वक स्व में लय करना) रूपी रत्नत्रय का आविर्भाव करने के लिए, इष्टानिष्ट , इन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा का विरोध करने की अपेक्षा निरोध करने के लिए किए जाने वाले तप ही सार्थक तथा कल्याणकारी माने गए हैं। साधना की दृष्टि से यहां तप दो प्रकार के माने गए हैं एक बाह्य तप जिसके अन्तर्गत अनशन, उनोदरी-अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान-भिक्षाचारी, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता-विविक्त शय्यासन हैं तथा दूसरा आभ्यन्तर तप है जिसमें प्रायश्चित विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग है। बाह्य तप बाह्य द्रव्य के अवलम्ब से होता है, इसे दूसरों के द्वारा देखा जा सकता है। इसमें इन्द्रिय-निग्रह होता है किन्तु आभ्यन्तर तप में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा अंतरंग परिणामों की प्रमुखता रहती है, दूसरों की दर्शनीयता रहती है। साधना में जाने वाला साधक सर्वप्रथम बाह्यतपान्तर्गत 'अनशन' में प्रवेश करता है तदनन्तर शनैः-शनैः अभ्यास करता हुआ तथा अनवरत साधना में प्रवेश करता है तदनन्तर शनैः-शनैः अभ्यास करता हुआ तथा अनवरत साधना क्रम-बिन्दुओं से गुजरता हुआ आभ्यान्तर तपान्तर्गत ध्यान-व्युत्सर्ग में प्रवेश कर साधना की परिपूर्णता को प्राप्त करता हुआ आत्मा की चरमोत्कर्ष स्थिति में पहुँच जाता है। साधना की इस प्रक्रिया में (२०३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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