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________________ इस प्रकार समग्र रूप में पर्यावरण पर यदि चिंतन किया जाये तो समूचा जैन धर्म हमारे सभी प्रकार के पर्यावरणों को अहिंसात्मक ढंग से संतुलित करने का विधान प्रस्तुत करना है और वैयक्तिक तथा सामाजिक शांति के निर्माण में स्थायित्व की दृष्टि से नये आयामों पर विचार करने को विवश करता है। न्यू एक्सटेंशन एरिया सदर नागपुर ४४०-००१ 3886608603300403398863383 जैन आचार : पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता 3623468009005808048906800982353986880038 __ • श्री राजीव प्रचंडिया आचार पक्ष एक ऐसा आधार स्तम्भ है जिस पर जीवन रूपी वृक्ष पुष्पित-पल्लवित है। यह जीवन की यथार्थता को प्रकट करने का एक सशक्त एवं सपाट साधन है। इसी को ध्यान में रखते हुए 'आचार-पक्ष' पर विश्व के समस्त दर्शनों, धर्मों में अपने-अपने स्तर पर विवेचन हुआ है। जैन दर्शन, धर्म भी इससे अछूता नहीं रहा है। इस व्यावहारिक एवं परम उपयोगी विषय पर चिन्तन करने से पहिले हमें यह सोचना होगा कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? हमारे सामने तीन स्थितियाँ हैं एक आध्यात्मिक दूसरी सांसारिक और तीसरी मिश्रित रूप। सामान्यतः आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उसमें तीसरे स्थिति ही समग्र जीवन का आयाम स्थिर करती है। यह तो हो सकता है इसमें व्यञ्जित बहुतायत कभी आध्यात्मिकता की तो कभी सांसारिकता की झलकने लगे। कारण स्पष्ट है वर्तमान परिस्थितियों में नितान्त पहली। दूसरी स्थिति परक लक्ष्य का साकार होना असम्भव सा लगता है। इसलिए देशकाल-समाज के आधार पर जो सटीक हो, न्यायसंगत हो, उपयोगी एवं उपादेयी हो, उसका समय-समय पर मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन होता रहा है, होना चाहिये। मूल्यांकन करते समय समाज व्यक्ति का लक्ष्य सुस्पष्ट होना चाहिए। देश काल के आधार पर परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रहती हैं, तद्नुरूप जीवन भी संचालित होता रहता है। उदाहरण के लिए पूर्व में जो सहनशक्ति, सहिष्णुता विद्यमान थी वह आज उतनी मात्रा सीमा में अदर्शित है और जो आज जिस रूप में है वह कल आने वाल समय में दृष्टिगोचर नहीं होगी। अतः जो समीचीन है उस पर आज के सन्दर्भ में हमें विचारना होगा। उसमें व्यञ्जित भावों की सूक्ष्मता को पकड़ना होगा और तारतम्य बैठाना होगा उसकी सार्थकता को, समीचीनता को। आज जब हम अपनी नजर चारों ओर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि व्यक्ति या समाज चाहे वह आध्यात्मिक-सामाजिक आदि किसी भी वर्ग विशेष से सम्बन्धित क्यों न हो अपने निर्धारित कर्तव्यों से विमुख होने के उद्यत है। क्यों? ऐसा क्यों? जो नियम, संविधान, संहिताएँ उस काल की स्थिति के देखते हुए बनाए गए थे या निर्धारित किए गए थे या तो उन पर कट्टरता से चल जाय या फिर उनमें युगानुरूप संशोधन-संवर्धन कर नई संहिताएँ आदि स्थापित कर उस पर चला जाए। यही दो रूप हमारे सामने आते हैं। पुरानी आचार-पद्धति में प्रछन्न जो वैज्ञानिकता है उसे हम सामने लाएँ तभी उसकी समीचीनता सिद्ध होगी। प्रस्तुत लेख का उद्देश्य भी यही है (२०२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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