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(दास-दासी), (८) चतुष्पद (पशु आदि) और (९) कुप्य (घरगृहस्थी का सामान)। जैन श्रमण उक्त सब परिग्रहों का परित्याग करता है। इतना ही नहीं उसे चौदह प्रकार के आभ्यन्तरिक परिग्रह का भी त्याग करना होता है जैसे १. मिथ्यात्व, २. हास्य, ३. रति, ४. अरति, ५. भय, ६. शोक, ७. जुगुप्सा, ८. स्त्रीवेद, ९. पुरुषवेद, १०. नपुसंकवेद, ११. क्रोध, १२. मान, १३. माया और १४. लोभ”
उपर्युक्त रूप से हमने देखा कि किस प्रकार श्रमण एवं श्रावक के लिए व्रतों का निर्धारण किया गया है। हमने गुणव्रत और शिक्षाव्रत का भी उल्लेख किया था जिन का पालन किया जाना चाहिए।
इस लेख के द्वारा मेरा निवेदन जैन धर्म के समस्त अनुयायियों से, चाहे वे श्रमण हो अथवा श्रावक, है कि वर्तमान में विश्व में व्याप्त विषमत्ताओं से बचने एवं बचाने का एक ही साधन है और वह है व्रत। अतः इसका प्रचार एवं प्रसार करने की और साथ ही साथ जीवन में उतारने की आवश्यकता है जो जैन समाज में दृष्टिगोचर नहीं होती है। क्या मैं मसीही धर्म का अनुयायी होते हुए आशा करूं कि जैन धर्म के अनुयायी एवं उपदेशक अन्य धर्मों के सम्मुख व्रतों का पालन का उदाहरण पेश करेंगे या ये बातें केवल धार्मिक ग्रंथों तक ही सीमित रहेगी या केवल जीव्हा के आभूषण बनेगें?
आराधना २७ रवीन्द्र नगर, उज्जैन
अपने लिए तो सभी जिते हैं पर दूसरों के लिए जीता हैं वही महान हैं। आत्यीयता की इस भावना के विकास का भी एक क्रम होता हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो सिर्फ अपने लिए ही स्वार्थ तथा अपने ही शारीरिक सुख का ध्यान रखते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो अपने परिवार व सगे-सम्बन्धियों की हित चिंता में लीन रहते हैं। उनसे जो उच्च होते हैं वे अपने देश की कमाई व सुखः समृद्धि का प्रयत्न करते हैं किन्तु जिनका हृदय उनसे भी अधिक निशाए होता हैं, वे विश्व के प्रत्येक प्राणी के सुख को अपना सुख तथा दुःख को अपना दुःख समझते हैं।
• युवाचार्य श्री मधुकर मुनि
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