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________________ दर्शन, चारित्र, सम्यकत्व तथा विनय का मूल है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनुष्य का अन्तःकरण, प्रशस्त गम्भीर और स्थिर हो जाता है।" १३ अतः मन, वचन और कर्म से समस्त इंद्रियों पर संयम करना एवं सभी प्रकार की वासनाओं एवं कामनाओं का परित्याग करना ब्रह्मचर्य विधान के अन्तर्गत देखा जाता है, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का सबसे सुन्दर विश्लेषण रतनलाल जैन ने किया है जो निम्न प्रकार से है - " सब से उत्तम बात यह है कि मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी रहे, किसी स्त्री के साथ काम सेवन न करें, न काम वासना को हृदय में स्थान दे, अपने मन पर नियन्त्रण रखें, पूर्व ब्रह्मचारी होना साधारण गृहस्थ के लिए कठिन है, इसलिए गृहस्थ के लिए उचित है कि वह अपनी काम वासना को अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री से चाहे वह विवाहित हो या अविवाहिता, गृहस्थिन हो या वेश्या, काम सेवन न करें। स्त्री या लड़कों के साथ अनंग-क्रीड़ा करना व्यभिचार से भी अधिक निन्द्य एवं दूषित है। पर स्त्री के साथ अश्लील हास्य करना, मनोरम अंग देखना, रमने की वासना हृदय लाना, आसक्त होना आदि ब्रहमचर्य व्रत के विरुद्ध है। अपनी विवाहिता स्त्री के भोग विलास में रत रहना भी कभी उचित नहीं कहा जा सकता है। इसलिए मुमुक्षु जीव का कर्तव्य है कि काम वासना को वश करें। जहाँ तक संभव हो सके, उतना कम अपनी धर्म पत्नी के साथ संभोग करें। श्रेष्ठ तो यह है कि केवल संतान उत्पत्तित के हेतु, मासिक धर्म के पश्चात् अपनी धर्म पत्नी के साथ संभोग करें। ब्रह्मचर्य व्रती के लिए उपयुक्त है कि वह अपनी आत्मिक शक्ति एवं परिस्थिति पर भली भांति विचार करके अपने जीवन पर्यन्त या किंचित काल के लिए, अपनी स्त्री के साथ भी भोग करने के नियम बना ले। इन नियमों से उसको ब्रह्मचर्य व्रत पालने में बड़ी सहायता मिलेगी । " " " १४ अपरिग्रह व्रत जैन धर्म में विश्वास किया जाता है कि अहिंसा की आधार शिला अपरिग्रह है। अपरिग्रह की साधना के बिना अहिंसा टिक नहीं सकती । १५ हमें यहाँ एक बात का स्मरण रखना चाहिए कि बात वस्तुओं को छोड़ने की नहीं है किन्तु वस्तुओं से अलिप्त रहने की है। दशवैकालिक ६/२१ में माना गया है कि आन्तरिक मूच्छि भाव या आसक्ति ही परिग्रह है । तत्वार्थसूत्र भी यही कहा गया है। अतः अपरिग्रहव्रत लेना व्यक्ति एवं समजा दोनों के लिए लाभप्रद है। विश्व में वर्ग भेद, विषमता, शोषण एवं संघर्ष-परिग्रह के कारण ही उत्पन्न होते हैं। अतः परिग्रह कर्मों के बन्धन का कारण बनता है। अपरिग्रह के दो पक्ष हैं : आत्मगत और समाजगत | अपरिग्रह व्रती इस व्रत से आत्म साधना की ओर तो बढ़ता ही है, साथ-साथ समाज का उपकार भी करता है। अपने आप की शुद्धि तथा उपलब्ध आय का वह सीमाधिकरण एवं विसर्जन करता है और इस प्रकार वह लोक और परलोक कर्तव्यों में अपनी भागीदारी का वहन ईमानदारी से करता है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं - " जैन आगमों में परिग्रह दो प्रकार का माना गया है, (१) बाह्य परिग्रह और (२) आम्यन्तरिक परिग्रह । बाह्य परिग्रह में इन वस्तुओं का समावेश होता है - (१) क्षेत्र (खुली भूमि), (२) वस्तु (भवन), (३) हिरण्य (रजत), (४) स्वर्ण, (५) धन (सम्पत्ति), (६) धान्य, (७) द्विपद १३. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन- डॉ. सागरमल जैन, पृ. ३३६। १४. आत्म रहस्य- रतनलाल जैन, पृ. १५२ । १५. तीर्थकर - श्री विद्यानन्द विशेषांक, पृ. १३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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