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________________ जैन परम्परा में स्वाध्याय तप 385528000080809208888888888886380000 • डॉ. दामोदर शास्त्री भारतीय परम्परा और स्वाध्याय - भारतीय संस्कृति के विविधि पक्षों को उजागर करने वाले विविध साहित्य का विशाल भण्डार, आज जिस रूप में भी, हमारे पास सुरक्षित है, उसका सारा श्रेय हमारी उस सुदीर्घ परम्परा को है जिसके द्वारा पठन-पाठन, स्वाध्याय, मनन-चिन्तन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। जहाँ तक वैदिक संस्कृति का सम्बन्ध है, उसमें मूल ग्रन्थ वेद तथा (वेदांग आदि) के पठन-पाठन, तत्त्व-चर्चा, धर्मोपदेश आदि के रूप में प्रवर्तमान स्वाध्याय की धार्मिक दृष्टि से महत्ता सर्वविदित है। वेद को सर्वविध ज्ञान का भण्डार घोषित कर ' आत्म-ज्ञान या परमात्म-ज्ञान की महत्ता सर्वातिशायिनी थी जरूर , पर वह वेद-प्रतिपादित या उपदिष्ट मार्ग से जुड़ी हुई थी । परवर्ती अन्य स्वतंत्र दार्शनिक मतों का उदभव व विकास भी हुआ, पर वे कमोबेश रूप में आवश्यकतानुसार श्रतु (वेद) को प्रमाण रूप में प्रस्तुत कर अपना मत समर्थित करते हैं । फलतः सुदीर्घ भारतीय इतिहास में वैदिक साहित्य के स्वाध्याय की प्रवृत्ति जोर-शोर से जारी रही। स्वाध्याय को कितना महत्व दिया जाता रहा है-यह भी इसी बात से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्याश्रम में अनेक वर्षों की पढ़ाई की समाप्ति के बाद, गुरु द्वारा शिष्य को जो कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए जाते थे, उनमें एक यह भी था -'स्वाध्यायान्मा प्रमदः १ -अर्थात् स्वाध्याय से (अध्ययन, प्रवचन, अध्यापन १) से प्रमाद कभी न करना। अधीत ग्रन्थों के स्वाध्याय से पठित विषय में दृढ़ता आती है, और हमारे अध्ययन की तेजस्विता प्रकट होती है। अध्ययन को तेजस्वी (अर्थज्ञानयोग्य) बनाने की कामना वेद में भी व्यक्त की गई है। ७ सच्छास्त्रों के स्वाध्याय को महत्ता देने के पीछे इसकी महती लौकिक व लोकोत्तर उपयोगिता भी थी। समस्त प्राणी-वर्ग की प्रबल इच्छा रहती है कि वह सर्वत्र, चाहे वह लोक में या लोक से विरक्त-मुक्त रहे, शांति प्राप्त करे। शान्ति प्राप्ति की इस अदम्य लालसा का समर्थन अनेक वैदिक वचनों से होता है “ । स्वाध्याय से लौकिक शांति तो प्राप्त होती है, १. भूतं भव्य भविष्य च सर्व वेदात् प्रसिद्धयति (मनुस्मृति)। २. यजु. ३.१८, अथ. ९.१०.१, १०.८.४४, ३. संश्रुतेन गमेमहि (अथर्व १.४)। जैमिनि सू. १.३.३, ब्रह्मासूत्र १.१.३.३, २.३.१.१, न्याय सू. ३.१.३१, वैशेषिक सू. २.१.१७.१९, १.१.३, सांख्य सू. १.३६.१, १.५३, योग सू. १.७. १.२६,. ___ तैत्ति. उप. १.११.१, शंकर भाष्य, तैत्ति. उप. १.११.१। तैत्ति. उप., द्वितीय व तृतीय वल्ली का प्रारम्भिक शांतिपाठ। यजु. ३६.१७॥ (८२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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