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________________ में बसे हुए जैनों को परिचित कराया है। तेरापंथ की कुछ जैन समणियों ने भी विदेशों में जाकर प्रेक्षाध्यान विधि का उन्हें अभ्यास कराया है। यद्यपि इनमें कौन कहाँ तक सफल हुआ है यह एक अलग प्रश्न है क्योंकि सभी के अपने-अपने दावे हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि आज पूर्व और पश्चिम दोनों में ही ध्यान और योग साधना के प्रति रुचि जागृत हुई है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि योग और ध्यान की जैन-विधि सुयोग्य साधकों और अनुभवी लोगों के माध्यम से ही पूर्व एवं पश्चिम में विकसित हो, अन्यथा जिस प्रकार मध्ययुग में हठयोग और तंत्रसाधना से प्रभावित होकर भारतीय योग और ध्यान परम्परा विकृत हुई थी। उसी प्रकार आज भी उसके विकृत होने का खतरना बना रहेगा और उससे लोगों की आस्था उठ जावेगी। ध्यान एवं योग सम्बन्धी शोध कार्य - इस युग में गवेष्णात्मक दृष्टि से योग और ध्यान संबंधी साहित्य को लेकर प्रर्याप्त शोध कार्य हुआ है। जहाँ भारतीय योग साधना और पातन्जलि के योग सूत्र पर पर्याप्त कार्य हए हैं, वहीं जैनयोग की ओर भी विद्वानों का ध्यान आकर्षित हआ है। ध्यानशतक. ध्यानस्तव, ज्ञानार्णव आदि ध्यान और योग सम्बन्धी ग्रन्थों का समालोचनात्मक भूमिका और हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयत्न कहा जा सकता है। पुनः हरिभद्र के योग सम्बन्धी ग्रन्थों का स्वतन्त्र रूप से तथा योग चतुष्टय के रूप में प्रकाशन इस कड़ी का एक अगला चरण है। पं. सुखलालजी का 'समदर्शी हरिभद्र' अर्हतदास बंडबोध दिगे का पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान से प्रकाशित जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन, मंगला सांड का भारतीय योग आदि गवेषणात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रकाशन कहे जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा में विलियम जेम्स का जैन योग, टाटिया की 'स्टडीज इन जैन फिलासली', पद्नाभ जैनी का 'जैन पाथ आफ प्यूरीफिकेशन' आदि भी इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। जैन ध्यान और योग को लेकर लिखी गई मुनि श्री नथमल जी (युवाचार्य महाप्रज्ञ) की 'जैन योग', 'चेतना का उर्ध्वारोहण', 'किसने कहा मन चंचल है', 'आभामण्डल', आदि तथा आचार्य तुलसी की . प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा आदि कृतियाँ इस दृष्टि से अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। उनमें पाश्चात्य मनोविज्ञान और शरीर-विज्ञान का तथा भारतीय हठ योग आदि की पद्धतियों का एक सुव्यवस्थित समन्वय हुआ है। उन्होंने हठयोग की षट्चक्र की अवधारणा को भी अपने ढंग से समन्वित किया है। उनकी ये कृतियाँ जैन योग और ध्यान साधना के लिए मील के पत्थर के समान है। निदेशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, आई.टी.आई.रोड वाराणसी-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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