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लोकोत्तर शांति (मुक्ति) ९ का मार्ग भी खुलता है १०। इसीलिए महर्षि व्यास ने उद्घोषणा की थी - . स्वाध्याय से उत्तम-श्रेष्ठ व अलौकिक शान्ति प्राप्त होती है ११। जैन संस्कृति में भी स्वाध्याय को सर्वदुःखों से मुक्ति देने वाला बताया गया है १२। इसी संदर्भ में महामान्य श्री लोकमान्य तिरक का यह वचन भी मननीय है :
___मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूँगा, क्यंकि इनमें वह दिव्य शक्ति है कि जहाँ ये होंगी, वहाँ आप ही स्वर्ग बन जाएगा।"
इसी प्रकार भारतीय संस्कृति की वैदिक धारा में तो स्वाध्याय की महत्ता वियमान है ही, श्रमण धारा के आदि-स्रोत जैन धर्म व दर्शन में भी इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में काफी चिन्तन हुआ है। चाहे वैदिक धारा हो, चाहे श्रमण जैन धारा, दोनों के साहित्य के अनुशीलतन से यह तथ्य प्रकट होता है कि मुनि-वर्ग की दैनिक जीवन-चर्या में तप व स्वाध्याय-इन दोनों की प्रमुख भूमिका है। वाल्मीकि रामायण के प्रथम श्लोक में जिस नारद से राम-कथा के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की गई है, उस नारद का विशेषण है-तपः स्वाध्यायनिरत। अर्थात् वाल्मीकि रामायण का प्रारम्भ. ही तप-स्वाध्याय ज्ञान दो पदों से हुई है । श्रमण (जैन) संस्कृति में भी स्वाध्याय को तप का ही एक भेद (प्रकार) स्वीकार करते हुए " तप व शास्त्रादि-स्वाध्याय में सर्वदा सचेष्ट मुनि को प्रशस्त बताया गया है।
प्रस्तुत निबन्ध द्वारा श्रमणधारा (जैन-धर्म-दर्शन) में 'स्वाध्याय' के विषय में जो विचार-विमर्श हुआ है, उसे संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। १५
स्वाध्याय-योग - दशवकालिक सूत्र में १६ 'स्वाध्याय-योग' शब्द व्यवहृत हुआ है। 'योग' शब्द ' के ऐसे तो अनेक अर्थ हैं, पर यहाँ अर्थ है-जोड़ने वाला, सम्बन्ध कराने वाला। किससे सम्बन्ध कराने वाला? समाधान है-मोक्ष से। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग बिन्दु में मोक्ष से सम्बन्ध कराने वाले व्यापार को 'योग' पद से अभिहित किया है १०१ स्वाध्याय भी संयमादि की तरह १८ एक 'योग' है, एक यौगिक क्रिया है, जो मोक्ष-प्राप्ति में सहायक होती है।
९. श्वेता उप. ४.११ मुंडकोप ७ १०. (क) कठोप १.२.२४
छान्दोग्य उप. ३.१४.१
(ख) नैति. उप. १.२.१ पर शांकर भाष्य। पृ. ९६. ब्रह्मानन्दवल्ली ११. म. भा. शांति पर्व, १८४.२ गीता प्रेस सं.। १२. उत्त. २६.१० १३. वा. रामा १.१ १४. भगवती आरा. १०७, उत्त. २६.३७।
द्वादशानु. ४४०। मूलाचार- ९७१ उत्त. ९७१। उत्त. २९.५९ दशवै. ८.६१।
उत्त. २९.१८ पर नेमिचन्द्रीय टीका में उद्धृत। १७. -योगबिन्दु, १.३१॥ १८. दशवै ८.६१ एवं भगवती सू. १८.१०.९।
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