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________________ सितलप स विचार हआ है। हो, दुष्ट राजा से शासित हो, पाखण्डियों के समूह से व्याप्त हो, जुआरियों, मद्यपियों और व्यभिचारों से युक्त हो और जहाँ का वातावरण अशान्त हो, जहाँ सेना का संचार हो रहा हो, गीत, वादित्र आदि के स्वर गूंज रहे हों, जहाँ जन्तुओं तथा नपुंसक आदि निकृष्ट प्रकृति के जनों का विचरण हो वह स्थान ध्यान के योग्य नहीं है। इसी प्रकार कांटे, पत्थर, कीचड़, हड्डी, रुधिर आदि से दूषित तथा कौए, उल्लू, शृगाल, कुत्तों आदि से सेवित स्थान भी ध्यान के योग्य नहीं होते यह बात स्पष्ट है कि परिवेश का प्रभाव हमारी चित्तवृत्तियों पर पड़ता है। धर्म स्थलों एवं नीरव साधना-क्षेत्रों आदि में जो निराकलता होती है तथा उनमें जो एक विशिष्ट प्रक ध्यान-साधना के लिए उपयुक्त होती है। अतः ध्यान करते समय साधक को क्षेत्र का विचार करना आवश्यक है। संयमी साधक का समुद्र तट, नदी तट, अथवा सरोवर के तट, पर्वत शिखर अथवा गुफा किंवा प्राकृतिक दृष्टि से नीरव और सुन्दर प्रदेशों को अथवा जिनालय आदि धर्म स्थानों को ही ध्यान के क्षेत्र के रूप में चुनना चाहिए। ध्यान की दिशा के सम्बन्ध में विचार करते हुए कहा गया है कि ध्यान के लिए पूर्व या उत्तर दिशा अभिमुख होकर बैठना चाहिये। ध्यान के आसन - ध्यान के आसनों को लेकर भी जैन ग्रन्थों में पर्याप्त रूप से विचार सामान्य रूप से पद्मासन, पर्यकासन एवं खड्गासन ध्यान के उत्तम आसन माने गये हैं। ध्यान के आसनों के संबंध में जैन आचार्यों की मूलदृष्टि यह है कि जिन आसनों से शरीर और मन पर तनाव नहीं पड़ता हो ऐसे सुखासन ही ध्यान के योग्य आसन माने जा सकते हैं। जिन आसनों का अभ्यास साधक ने कर रखा हो और जिन आसनों में वह अधिक समय तक सुखपूर्वक बैठ सकता हो तथा जिनके कारण उसका शरीर खेद को प्राप्त नहीं होता हो, वे ही आसन ध्यान के लिये श्रेष्ठ आसन है, (७६)। सामान्यतया जैन परम्परा में पद्मासन और खड्गासन ही ध्यान के अधिक प्रचलित आसन रहे हैं (४७)। किन्तु महावीर के द्वारा गोदुहासन में ध्यान करके केवल ज्ञान प्राप्त करने के भी उल्लेख है (१८। समाधिकरण या शारीरिक अशक्ति की स्थिति में लेटे-लेटे भी ध्यान किया जा सकता है। ध्यान का काल - सामान्यतया सभी कालों में शुभ भाव संभव होने से ध्यान साधना का कोई विशिष्ट काल नहीं कहा गया है। किन्तु जहाँ तक मुनि समाचारी का प्रश्न है, उत्तराध्ययन में सामान्यरूप में मध्याह्न और मध्य रात्रि को ध्यान के लिए उपयुक्त समय बताया गया है (४९। उपासकदशांक में सकडाल पुत्र के द्वारा मध्याह्न में ध्यान करने का निर्देश है (५०। कही-कहीं प्रातः काल और सन्ध्याकाल में भी ध्यान करने का विधान मिलता है। ध्यान की समयावधि - जैन आचार्यों ने इस प्रकार पर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है कि किसी व्यक्ति की चित्तावृत्ति अधिकतम कितने समय तक एक विषय पर स्थिर रह सकती है। इस संबंध में उनका निष्कर्ष यह है कि किसी एक विषय पर अखण्डित रूप से चित्तवृत्ति अन्तर्मुहुर्त से अधिक स्थिर ४५. ज्ञानार्णन २७/२३-३२ ४६. ज्ञानार्णव २८/११ ४७. ज्ञानार्णव - २८/१० ४८. कल्पसूत्र -१२० उत्तराध्ययन सूत्र २६/१८ ५०. उपासक दशांग ८/१८२ (६६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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