________________
मेरी दृष्टि में स्व-पर के लिये कल्याणकारी विषयों पर चित्तवृत्ति का स्थित होना धर्मध्यान है। यह लोकमगल और आत्म विशुद्धि का साधक होता है। चूंकि धर्मध्यान में कर्ता-भोक्ताभाव होता है, अतः यह शुभ-आश्रव का कारण होता है। जब आत्मा या चित्त की वृत्तियाँ साक्षीभाव या ज्ञाता-द्रष्टा भाव में अवस्थित होती हैं तब साधक न तो कर्ताभाव से जुड़ता है और न भोक्ताभाव से जुड़ता है, यही साक्षी भाव की अवस्था ही शुक्ल ध्यान है। इसमें चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है।
ध्यान शब्द की जैन परिभाषाएँ - सामान्यतया अध्यवसायों (चित्तवृत्ति) का स्थिर होना ही ध्यान कहा गया है। दूसरे शब्दों में मन की एकाग्रता को प्राप्त होना ही ध्यान है। इसके विपरीत जो मन चंचल है उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिंत्ता कहा जाता है । इस प्रकार ध्यान वह स्थिति है जिसमें चि वृत्ति की चंचलता समाप्त हो जाती है और वह किसी एक विषय पर केन्द्रित हो जाती है। तत्वार्थसूत्र में, ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अनेक अर्थों का आलम्बन देने वाली चिन्ता के निरोध ध्यान है (४१। दूसरे शब्दों में जब चिन्तन को अन्यान्य विषयों से हटाकर किसी एक ही वस्तु में केन्द्रित कर दिया जाता है तो वह ध्यान बन जाता है। यद्यपि भगवती आराधना में एक ओर चिन्ता निरोध से उत्पत्र एकाग्रता को ध्यान कहा गया है किन्तु दूसरी ओर उसमें राग-द्वेष और मिथ्यात्व से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है (४२। आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में ध्यान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित चेतना की जो अवस्था है वही ध्यान है (०२। इस गाथा में पण्डित बालचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री ने दंसणणाण समग्गं का अर्थ सम्पक्-दर्शन व सम्यक ज्ञान से परिपूर्ण किया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह अर्थ उचित नहीं है। दर्शन और ज्ञान की समग्रता (समग्गं) का अर्थ है । ज्ञान का भी निर्विकल्प अवस्था में होना। सामान्यतया ज्ञान विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प। किन्तु जब ज्ञान चित्त की विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प। किन्तु जब ज्ञान चित्त की विकल्पता से रहित होकर दर्शन से अभिन्न हो जाता है, तो वही ध्यान हो जाता है। इसीलिए अन्यत्र कहा भी है कि ज्ञान से ही ध्यान की सिद्धि होती है । ध्यान शब्द की इन परिभाषाओं में हमें स्पष्ट रूप से एक विकास क्रम परिलक्षित होता है। फिर भी मूलरूप में ये परिभाषाएं एक दूसरे की विरोधी नहीं हैं। चित्त का विविध विकल्पों से रहित होकर एक विकल्प पर स्थिर हो जाना और अन्त में निर्विकल्प हो जाना ही ध्यान है। क्योंकि ध्यान की अन्तिम अवस्था में सभी विकल्प समाप्त हो जाते हैं।
ध्यान का क्षेत्र - ध्यान से साधन को दो प्रकार के माने गये हैं एक बहिरंग और दूसरा-अन्तरंग। ध्यान के बहिरंग साधनों में ध्यान के योग्य स्थान (क्षेत्र), आसन, काल आदि का विचार किया जाता है। और अन्तरंग साधनों में ध्येय विषय और ध्याता के सम्बन्ध में विचार किया गया है कि ध्यान के योग्य क्षेत्र कौन से हो सकते हैं। आचार्य शुमचन्द्र लिखते हैं कि जो स्थान निकृष्ट स्वभाववाले लोगों से सेवित
४०. ध्यानस्तव (जिनभद्र वीरसेवा मंदिर) २ ४१. तत्त्वाक्छ सूत्र ९/२७ ४२. भगवती आराधना विजयोदया टीका- देखे ध्यानशतक प्रस्तावना पृ. २६ ४३. पंचास्तिकाय १५२ ४४. णाणेण झाणसिद्धि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org