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जैनदर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावर चित्त और योगदर्शन के क्षिप्त और मूढ़ चित्त समानार्थ है. क्योंकि सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं एवं कामनाओं को होती है। इसी प्रकार जैन दर्शन का यातायात मन, बौद्ध दर्शन का रूपावचर चित्त और योगदर्शन का विक्षिप्त चित्त भी समानार्थ है, सामान्यतया सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में अल्पकालिक स्थिरता होती है तथा वासनाओं के वेग में थोड़ी कमी अवश्य हो जाती है। इसी प्रकार जैनदर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्धदर्शन का अरूपावर चित्त और योगदर्शन का एकाग्रचित्त भी समान ही है। सभी ने इसको मन की स्थिरता की अवस्था कहा है। चित्त की अन्तिम अवस्था जिसे जैनदर्शन में सुलीन मन, बौद्धदर्शन लोकोत्तर चित्त और योगदर्शन में निरूद्ध चित्त कहा गया है, भी समान अर्थ के घोतक हैं। इसमें वासना, संस्कार एवं संकल्प-विकल्प का पूर्ण अभाव हो जाता है। ध्यान साधना का लक्ष्य चित्त की इस वासना संस्कार एवं संकल्प-विकल्प से रहित अवस्था को प्राप्त करना है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि क्रम और अभ्यास बढ़ाते हुए अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह अभ्यास करने से निरालम्बन ध्यान होने लगता है। निरालम्बन ध्यान से समत्व प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए। योगी को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तर्रात्मा के साथ सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा का ध्यान
करे (३६)।
इस प्रकार चित्त-वृत्तियों या वासनाओं का विलयन ही समालोच्य ध्यान परम्पराओं का प्रमुख लक्ष्य रहा है क्योंकि वासनाओं द्वारा ही मन-क्षोभित होता है, जिससे चेतना के समत्व का भंग होता है। ध्यान इसी समत्व या समाधि को प्राप्त करने की साधना है।।
ध्यान का सामान्य अर्थ - ध्यान शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय या बिन्दु पर केन्द्रित होना है (३७। चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है वह प्रशस्त या अप्रशस्त दोनों ही हो सकता है। इसी आधार पर ध्यान के दो रूप निर्धारित हुए १ प्रशस्त और २ अप्रशस्त। उसमें भी अप्रशस्त ध्यान के पुनः दो रूप माने गये -१ आर्त और २ रौद्र। प्रशस्त ध्यान के भी दो रूप माने गये -१ धर्म और २ शुक्ल। जब चेतना राग या आसक्ति में डूब कर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आकांक्षा पर केन्द्रित होती है तो उसे आर्त ध्यान कहा जा सकता है। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्तवस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में चित्त का डूबना ही आर्तध्यान है (३८ । आर्तध्यान चित्त के अवसाद विषाद की अवस्था है। जब कोई उपलब्ध
पयों के वियोग का या अप्राप्त अनुकूल विषयों की उपलब्धि में अवरोध का निमित्त बनता
नता है तो उस पर आक्रोश का जो स्थायीभाव होता है. वही रौद्रध्यान है (२९। इस प्रकार आर्तध्यान रागमूलक होता है और रौद्र ध्यान द्वेष मूलक होता है। राग-द्वेष के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों ध्यान संसार के जनक हैं अतः अप्रशस्त माने गये हैं। इनके विपरीत धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त माने गये हैं।
३६. योगशास्त्र, १२/५-६ ३७. तत्त्वार्थसूत्र ९/२७ ३८. वही ९/३१ ३९. वही ९/३६
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