SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं रह सकती। अन्तर्मुहुर्त से उनका तात्पर्य एक क्षण से कुछ अधिक तथा ४८ मिनट से कुछ कम है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ध्यान अन्तर्मुहुर्त से अधिक समय तक नहीं किया जा सकता है। यह सत्य है कि इतने काल के पश्चात् ध्यान खण्डित होता है, किन्तु चित्तवृत्ति को पुनः नियोजित करके ध्यान को एक प्रहर या रात्रिपर्यंत भी किया जा सकता है। ध्यान और शरीर रचना जैन आचार्यों ने ध्यान का संबंध शरीर रचना से भी जोड़ा है। यह अनुभूत तथ्य है कि सबल, स्वस्थ और सुगठित शरीर ही ध्यान के लिए अधिक योग्य होता है। यदि शरीर निर्बल है, सुगठित नहीं है तो शारीरिक गतिविधियों को अधिक समय तक नियन्त्रित नहीं किया जा सकता है और यदि शारीरिक गतिविधियाँ नियन्त्रित नहीं रहेगी तो चित्त भी नियन्त्रित नहीं रहेगा। शरीर और चित्तवृत्तियों में एक गहरा संबंध है। शारीरिक विकलताएं चित्त को विकल बना देती है और चैत्सिक विकलताएं शरीर को । अतः यह माना गया है कि ध्यान के लिए सबल निरोग और सुगठित शरीर आवश्यक है। तत्वार्थसूत्र में तो ध्यान की परिभाषा देते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि उत्तम संहनन वाले का एक विषय में अंतकरण की वृत्ति का नियोजन ध्यान है (५१), जैन आचार्य यह मानते हैं कि छः प्रकार की शारीरिक संरचना में से वज्रर्षभनारांच, अर्धवज्रर्षभनारांच, और नारांच और अर्धनारांच, ये तीन चार शारीरिक संरचनाएँ ही (संहनन) ध्यान के योग्य होती है (५२) । यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि शारीरिक संरचना का यह संबंध मुख्यरूप से प्रशस्त ध्यानों से ही है, अप्रशस्त ध्यानों से नहीं है। यह सत्य है कि शरीर चित्तवृत्ति की स्थिरता का मुख्य कारण होता है। अतः ध्यान की वे स्थितियाँ जिनका विषय प्रशस्त होता है और जिनके लिए चित्तवृत्ति की अधिक समय तक स्थिरता आवश्यक होती है वे केवल सबल शरीर में ही सम्भव होती हैं । किन्तु अप्रशस्त आर्त्त, रौद्र आदि ध्यान तो निर्बल शरीर वालों को ही अधिक होते हैं। अशक्त या दुर्बल व्यक्ति ही अधिक चिन्तित एवं चिड़चिड़ा होता है । ध्यान किसका? ध्यान के सन्दर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि ध्यान किसका किया जाये ? दूसरे शब्दों में ध्येय या ध्यान का आलम्बन क्या है ? सामान्य दृष्टि से विचार करने पर तो किसी भी वस्तु या विषय को ध्येय ध्यान के आलम्बन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि सभी वस्तुओं या विषयों में कम-अधिक रूप में ध्यानाकर्षण की क्षमता तो होती ही है। चाहे संसार के सभी विषय ध्यान के आलम्बन् होने की पात्रता रखते हो, किन्तु उन सभी को ध्यान का आलम्बन नहीं बनाया जा सकता है। व्यक्ति के प्रयोजन के आधार पर ही उनमें से कोई एक विषय ध्यान का आलम्बन बनता है। अतः ध्यान के आलम्बन का निर्धारण करते समय यह विचार करना आवश्यक होता है। कि ध्यान का उद्देश्य या प्रयोजन क्या है? दूसरे शब्दों में ध्यान हम किसलिए करना चाहते हैं? इसका निर्धारण सर्वप्रथम आवश्यक होता है। वैसे तो संसार के सभी विषय चित्त को केन्द्रित करने की सामर्थ्य रखते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि बिना किसी पूर्व विचार के उन्हें ध्यान का आलम्बन अथवा ध्येय बनाया जाये। किसी स्त्री का सुन्दर शरीर ध्यानाकर्षण या ध्यान का आलम्बन होने की योग्यता तो रखता है किन्तु जो साधक ध्यान के माध्यम से विक्षोभ या तनावमुक्त होना चाहता है, उसके लिए यह उचित नहीं होगा कि वह स्त्री के सुन्दर शरीर को अपने ध्यान का विषय बनाये। क्योंकि उसे ध्यान का विषय बनाने से उसके मन में उसके प्रति रागात्मकता उत्पन्न होगी, वासना जगेगी और पाने की आकांक्षा ५१. तत्वार्थसूत्र - ९ / १७ ५२. - Jain Education International तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य, उमास्वाति ९/२७ (६७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy