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जाणं बुद्धाणं सव्वनूणं सव्वदरिसीणं सिवमयल मरुअ-मणंत-मक्खय मव्वाबाह मपुणरावित्ति सिद्धिगइनाम धेयं ठाणं संपत्ताणं (तथा) सिद्धिगइनामधेयं ठाणं
संपाविउकामाणं नमो जिणाणं जियभयाणं ।
(नमोत्थुणं का समग्र पाठ पाठक गण स्वयं समझ लें विस्तार भय से आवश्यक संक्षिप्त पाठ का ही यहां उल्लेख किया है ) ।
जिनत्व की प्राप्ति कब? जन्म-मरण रूप संसार में संसरण करने वाले सभी जीव जिनत्व को प्राप्त करने के अभिलाषी हैं। लेकिन यह सभी जानते हैं कि सुदृढ़ नींव भव्य भवन-निर्माण की आधार शिला है। अतएव सर्व प्रथम जिनत्व प्राप्ति की सामान्य भूमिका का दिग्दर्शन कराते हैं। इसके लिए श्री मद् भगवद् गीता के निम्नांकित श्लोक विशेष उपयोगी हैं
सम दुःख सुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । तुल्य प्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्म संस्तुतिः ॥ निर्मान मोहा जितसङ्ग दोषा, अध्यात्म नित्या विनिवृत्त कामाः । द्वन्दैर्विमुक्ताः सुख दुःख संज्ञैः, र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्यम तत् ।
गीता १४ । २४ तथा १५/५
में
अर्थात् जो दुःख और सुख समभाव रखता है, हर्ष विषाद का लेश मात्र भी स्पर्श नहीं करता, कंचन कंकड को एक रूप समझता है, निन्दा स्तुति में सम रहता है और स्व स्वरूप में स्थिर रहता है तथा जिसने मान मोह को जीत लिया है संगदोष (लोभ) पर विजय प्राप्त कर ली है। जो आत्मा में रमण करता है। जिसकी काम भावना प्रक्षीण हो गई है। जो संकल्प विकल्पों से विलग है ऐसा अमूढ़ (सजग व्यक्ति) अव्यय (जिन) पद प्राप्त करने का अधिकारी है।
ऐसा अधिकारी व्यक्ति परम शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ने का उपाय करता है तभी जिनत्व की प्राप्ति सम्भव है। सभी आत्म वादी दार्शनिकों ने सभी जिनत्व प्राप्ति के अभिलाषियों ने जिनत्व प्राप्ति के मार्ग पर स्थितों ने यह माना है कि सम्यग् दर्शन - ज्ञान चारित्र कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्ति के साधन हैं। इन्हीं को किसी ने ज्ञान और क्रिया के रूप में कहा है। किसी ने भक्ति को, किसी ने तप को, इनके साथ • जोड़कर अपनी-अपनी दृष्टि से साधनों की संख्या बतायी है। जो शाब्दिक व कखन शैली की भिन्नता है । लेकिन इतना स्पष्ट है कि सम्यग दर्शन आदि तीनों की पूर्ण स्थिति बनने पर कर्म क्षय होता है और तब जिनत्व की प्राप्ति होती है।
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कर्म शत्रु क्यों है?
कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वालों को जिन कहते हैं तो प्रश्न उठता है कि वे शत्रु क्यों है और उनका कार्य क्या है? इसका उत्तर यह है कि प्रतिपक्षी किसी का विकास नहीं होने व करने देता यही स्थिति कर्म की है। वह आत्मा के मूल स्वभाव को प्रकट करने
है।
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