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में बाधक है। आत्म शक्तियाँ अनन्त हैं। अतएव कर्म शत्रुओं की संख्या भी अनन्त है। परन्तु उन सबका आत्मा के आसाधारण गुणों को जिनसे सामान्य व्यक्ति को भी आत्मा के गुण स्वभाव का बोध हो सकता है, ध्यान में रखकर इन आठ नामों में उनका समावेश किया है -ज्ञानावरण दर्शनावरण, वेदनीय मोहनीय
आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इमें ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय साक्षात आत्म गुणों के विघातक होने से घाति और वेदनीय आदि शेष चार कर्म पूर्ण रूप में आत्म गुणों की अभिव्यक्ति न होने देने में सहकारी कारण होने से आघातिक कहलाते हैं इनमें भी मोहनीय कर्म सबसे बलवान है सब कर्मों का राजा है। क्योंकि वह आत्मा को शान्त प्रशान्त स्थिति में स्थिर नहीं होने देता है जिससे वह स्वोन्मुखी प्रवृत्ति नहीं कर पाती है। इसका उन्मूलन हो जाने पर शेष कर्म निर्बल निशक्त होकर नष्ट हो जाते हैं। जिसकी प्रक्रिया इस प्रकार है - सर्व प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय होता है। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त के अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य के विघातक ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय यह तीन कर्म नष्ट होते हैं। इससे अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्य की परमावस्था को प्राप्य आत्मा को सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिन अरिहन्त पद की प्राप्ति हो जाती है। जिसको संक्षेप में संयोगि जिन नाम से भी कहा जाने लगता है।
__ तदनन्तर शेष आयु आदि चार कर्मों का सद्भाव रहने तक वे सयोगी जिन धर्म देसना द्वारा अपनी अनुभूतियों का दिग्दर्शन कराते रहते हैं और इनका भी क्षय होने पर पूर्ण जिनत्व को प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो लोकाग्र में स्थित हो अनन्त काल तक स्वात्म गुणों में रमण करते रहते हैं। जन्म-जरा-मरण रूप संसार में पुनरागमन नहीं होता है। सम्पूर्ण जिनत्व को प्राप्त ये आत्माएं हम सबके लिए वन्दनीय हैं।
जिन के भेद - निश्चयनय की दृष्टि से जिनके भेद नहीं हैं। क्योंकि आत्म गुण घातक कर्मों के क्षय हो जाने से जिन आत्माओं ने स्वाभाविक चेतना प्राप्त कर ली है, आत्म स्वरूप में रमण करती हैं, वे जिन हैं। लेकिन जब सरलता से समझने के लिए व्यवहार नय की दृष्टि का सहारा लेते है तब विभिन्न प्रकार से भेदों की कल्पना कर ली जाती है जैसे -सकल जिन देश जिन। जो आत्मा गुण घातक कर्मों का क्षय कर चुके है वे सकल जिन हैं अरिहन्त और सिद्ध ये सकल जिन हैं आचार्य उपाध्याय व साधु कषाय इन्द्रिय विषय और मोह को जीतने के मार्ग पर अनुगमन करने वाल होने से देश जिन कहलाते हैं।
अथवा योग सहित केवल ज्ञानी सयोगी जिन और योग रहित केवल ज्ञानी अयोगी जिन कहलाते हैं। सयोगी जिन सयोग केवली नामक तेरहवें गुण स्थान और अयोगी जिन आयोग केवली नामक चौदहवें गुण स्थान- वर्ती हैं। कहीं कहीं सकल परमात्मा और निकल परमात्मा नाम भी जिनों के लिए प्रयुक्त हुए है। अथवा जिन के तीन भेद हैं -
१. अवधि ज्ञानी जिन २. मनः पर्याय ज्ञानी जिन और ३. केवल ज्ञानी जिन। केवल ज्ञानी जिन तो राग द्वेष आदि संसार के कारणों का पूर्ण रूप से क्षय कर चुके हैं, वे साक्षात जिन है। अवधि ज्ञानी
और मनः पर्याय ज्ञानी प्रत्यक्ष आत्म जन्म ज्ञान वाले होते हैं। इसलिए वे जिन सरीखे होने से उपचारतः जिन कहलाते है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य प्रकार से जिनके भेदों की कल्पना की जा सकती है। शास्त्रों में भेद करने के कारणों का उल्लेख करने के साथ उनके अपने प्रकार से भेद किये हैं किन्तु विस्तार के भय से उन सबका यहाँ उल्लेख करना सम्भव नहीं है।
जिन भगवान के अतिशय - जिन भगवान अनन्त गुणों के धारक होने से उनके अतिशयों की संख्या भी उतनी होगी जिससे व्यक्ति आश्चर्य चकित हो अथवा असंभव संभव रूप बने उसे अतिशय कहते हैं। सिद्ध जिनों में अतिशय की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। वे तो निराकार रूप से सत् चित
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