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________________ शंकर जिन्होंने घोर संसार सागर में निमग्न प्राणियों के उद्धार के लिए सुख शान्ति प्राप्ति के उपायों का उपदेश दिया उन्हें शंकर कहते हैं। - रुद्र - जिन्होंने शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि द्वारा रौद्र (क्रूर) कर्म जाल को भस्म कर दिया है, उन्हें रुद्र कहते हैं। विष्णु - जिन्होंने द्रव्य पर्याय रूप त्रिलोक को अपने ज्ञान के प्रकाश से व्याप्त कर दिया है उन्हें विष्णु कहते हैं । पुरुषोत्तम - जिन्होंने अपने पौरुष का सर्वश्रेष्ठ फल प्राप्त कर लिया है और दूसरों को भी वैसा पुरुषार्थ करने का उपाय बताते हैं उन्हें पुरुषोत्तम कहते हैं। ब्रह्मा - बुद्ध - - जो सम्पूर्ण परिग्रहों से रहित हैं जिनकी देशना सर्व भाषाओं में परिणत हो जाती है, समोवसरण में जिनके चार मुख दिखाई देते हैं और काम विकारों से रहित हैं। उन्हें ब्रह्मा कहते हैं । सुगत जिन्होंने सर्व प्रकार के द्वन्दों से रहित आत्म स्वभाव से उत्पन्न हुए परम निर्वाण रूप स्थान को प्राप्त कर लिया है उन्हें सुगत कहते हैं । इसी प्रकार उन सर्वज्ञ सर्व दर्शी जिन भगवान के अन्य सार्थक नाम जानना चाहिए जिनका यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है। अतः उप संहार के रूप में उनका कुछ संकेत करने के लिए श्री मानतुंगाचार्य के दो छन्दों को यहाँ उद्धृत करते हैं। - मतिश्रुत और अवधि इन तीन ज्ञान सहित उत्पन्न हुए और मोक्ष मार्ग में स्वयं प्रबुद्ध हैं अर्थात जिन्हें मोक्ष मार्ग पर किसी दूसरे ने नहीं चलाया है किन्तु स्वयं चले हैं उन्हें बुद्ध कहते हैं। Jain Education International त्वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाध बह्माणमीश्वरमनंतमनडगकेतुम। योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरुपममलं प्रवदंति संतः ॥ मुमुक्षुओं के लिए नमस्करणीय ये जिनत्व को प्राप्त अनन्त आत्म गुणों के अभिव्यंजक स्व- परावभासी ज्ञान प्रकाश से ज्योतिर्मान चिदानन्द लीन जिंन अपनी वीतरागिता के कारण किसी का इष्टानिष्ट नहीं करते हैं। परन्तु प्रत्येक मुमुक्षु के अन्तर में एक नांद गूंजता रहता है कि मैं भी अपने आत्म विकास के परम लक्ष्य को प्राप्त करूँ। इसके लिए वह साधना में संलग्न हो जाता है। कभी वह अप अन्तर को परखता है प्रवृत्तियों का लेखा जोखा करता है और आत्म आलोचना करते-करते उल्लास के क्षणों में डूब जाता है तो भक्ति वश मुख से बोल निकल पड़ते है - नमुत्थुणं! अरिहंताणं भगवंताणं-सयं संबुद्धाणं बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित! बुद्धि बोधात्, त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय - शंकरत्वात् । धाताऽसि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानात्, व्यक्तं त्वमेव भगवन! पुरुषोत्तमोऽसि ॥ - पुरिसुत्तमाणं अप्पडिहय-वर-नाणं-दंसणधराणं विअट्टछउमाणं (२४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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