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उतर आते हैं। पाश्चात्य जगत् में बच्चों की भी गणना एक विपत्ति में होने लगी है। माँ-बाप उन्हें अभिशाप मानने लगे हैं। पति-पत्नी मिलन जब नैतिकता को ताक रखकर विशुद्ध कामुक प्रयोजन के लिये ही रह जाता है, तब कृत्रिम प्रजनन विरोध, भ्रूण हत्या या गर्भपात में कोई दोष नहीं समझा जाता । इस अनैतिक कर्म के फलस्वरूप स्त्री को बीमारियाँ लग जाती हैं, पुरुष भी अतिभोग का शिकार होकर अनैतिक कर्म का दण्ड किसी न किसी बीमारी, विपत्ति या अर्थ हानि के रूप में पाता है।
पाश्चात्य जगत् की तरह भारत में भी यह प्रचलन अधिक होता जा रहा है। बच्चे जब पेट में आते हैं या जन्म लेने लगते हैं, उनके माँ-बाप की कामुकवृत्ति की पूर्ति में बाधक बनते हैं । फलतः पेट में आए हुए बच्चों से पिण्ड छुड़ाने के लिए कृत्रिम प्रजनन निरोध का सहारा लिया जाता है। जन्में हुए बच्चों से भी कब, किस तरह पिण्ड छुटे, इसकी चिन्ता उनके माता-पिता को होने लगी है। सौन्दर्य को हानि न पहुँचे इसलिए बच्चों को माता का नहीं, बोतल का दूध पीना पड़ता है। कई परिवारों में तो अधिकांश बच्चों के पालन-पोषण की झंझट से बचने के लिए उन्हें पालन गृहों में दे दिया जाता है । पैसा देकर इस जंजाल से मां-बाप छुट्टी पा लेते हैं। फिर स्वच्छन्द घूमने-फिरने और हंसने- खेलने की सुविधा हो जाती है। जैसे ही बालक कमाऊ हुआ पाश्चात्य जगत् में मां-बाप से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता । पशुपक्षियों में
तो यही प्रथा है। उड़ने चरने लायक न हो तभी तक माता उनकी सहायता करती है। बाप तो उस स्थिति में भी ध्यान नहीं देता। बच्चों की जीवनरक्षा के लिए यदि माता के हृदय में नैतिक दृष्टि से स्वाभाविक ममता न होती तो अनास्थावान माताएँ बच्चों की सार संभाल करने में रुचिन लेतीं और माता की निगाह बदलने पर बाप तो उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखता । नैतिकता की जगह पाशविक वृत्ति ले लेती है।
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जिन माता-पिताओं का दृष्टिकोण बच्चों के प्रति पाशविकवृत्ति युक्त हो जाता है, उस दुष्कर्म का प्रतिफल बुढ़ापे में उन्हें भुगतना पड़ता है। वे बच्चें भी बुढ़ापे में उन दुर्नीत अभिभावकों की कोई सहायता नहीं करते और उन्हें कुत्ते की मौत मरने देते हैं। आखिर वे जब बूढ़े होते हैं तो उन्हें भी अपने बच्चों से सेवा या सहयोग की कोई आशा नहीं रहती । 'याध्क्करणं ताध्वभरणं' इस कर्मसिद्धान्त के अनुसार उनकी अनैतिकता का फल उन्हें मिलता ही है।
पति-पत्नी के जीवन में प्रायः इस अनैतिकता ने गहरा प्रवेश पा लिया है। वैवाहिक जीवन का उद्देश्य कामुकता की तृप्ति हो गया है । वेश्या जिस प्रकार शरीर सौन्दर्य प्रसाधन एवं साजसज्जा से लेकर वाक्जाल तक के रस्सों से आगन्तुक कामुक को बांधे रहती है, वैसी ही दुर्नीति औसत पत्नी को प्रायः अपने पति के साथ बरतनी पड़ती है। जब तक कामवासनातृप्ति का प्रयोजन खूबसूरती से चलता है, तब तक वह प्रायः पत्नी को चाहता है, आर्थिक लोभ एवं स्वार्थ का दूसरा पहलू भी विवाह के साथ जुड़ गया है । प्रायः निपटस्वार्थ पूर्ण अनैतिकता की इस शतरंज का पर्याय बन गया है दाम्पत्य जीवन । एक घर में रहते हुए भी पति पत्नी में प्रायः अविश्वास का दौर चलता है। विवाह के पूर्व आजकल के मनचले युवक अपने भावी साथी के साथ जो लम्बे चौड़े वायदे और हावभाव दिखाते हैं, वे सन्तान होने के बाद प्रायः फीके हो जाते हैं । ३२ इस प्रकार दाम्पत्य जीवन की इस अनैतिकतापूर्ण विडम्बना का जब फटस्फोट होता है, तब निराशा, दुःख और संकट ही हाथ लगता है ।
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जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'कर्म का सामाजिक सन्दर्भ' लेख से भावांश पृष्ठ. २८ अखण्ड ज्योति मार्च १९७२ में प्रकाशित अनास्था हमें प्रेत-पिशाच बना देगी लेख पृष्ठ १९
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