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घिस-घिस कर मरने की अपेक्षा, नींद की अधिक गोलियाँ खाकर मरना अधिक अच्छा समझा, ...क्योंकि वयस्क होने के बाद सन्तान ने उनकी ओर मुंह मोड़ कर भी नहीं देखा था।"२८
बूढ़े अभिभावकों की इस दुर्गति का कारण प्रायः वे स्वयं ही हैं। उन्होंने अपने उन बालकों को अभिशाप समझ कर अपनी जवानी में उनके प्रति उपेक्षा रखी। न तो स्वयं बूढ़ों ने उस समय नैतिकता रखी और न ही अपने बच्चों को नैतिकता के संस्कार दिये। उन्होंने ही नैतिक उच्छृखलता को जन्म दिया, वही नैतिक उच्छंखलता उनके बालकों में अवतरित हुई, जो परम्परा से पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में उनके इस अनैतिकायुक्त कर्म को फल दुःख, विपत्ति, एकाकीपन, नीरस असहाय जीवन-यापन, विलाप, आदि के रुप में उन्हें और उनकी सन्तान को देखना पड़ा। जैन कर्म विज्ञान यही तो बताता है। कर्म सिद्धान्त पर अनास्था और अविश्वास लाकर जिन्होंने अपने जीवन में नीति एवं धर्म से युक्त विचार आचार
यान नहीं दिया और नैतिकता के सन्दर्भ में साधारण मानवीय कर्तव्य की भी उपेक्षा कर दी, उन्हें उन दुष्कर्मों का फल भोगना पड़ा और उनकी संतान को भी बिरासत में वे ही अनैतिकता के कुसंस्कार
मिले। २९
निष्कर्ष यह है कि शरीर के साथ ही अपने जीवन का अन्त मान कर कर्म विज्ञान के सिद्धान्त को व्यर्थ की बकवास मानने वाले तथा नैतिकता से रहित, अनैतिक आचरणों से युक्त जीवन यापन करने वाले थके, हारे, बूढ़े, घिसे व्यक्तियों की आँखों में आशा की चमक कैसे आ सकती है? ऐसी स्थिति में वे - निरर्थकतावादी बन जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं। हिप्पीवाद इसी नीरस निरर्थक जीवन की निरंकुश अभिव्यक्ति है। अभी इसका प्रारम्भ है। कर्म विज्ञान के प्रति अनास्था जितनी प्रखर होगी, उतना ही यह क्रम उग्र होता जाएगा। हो सकता है, इसकी रसता एवं निरर्थकता की आग में झुलस कर भारतीय सम्भता और संस्कृति भी स्वाह हो जाए। ३० वर्तमान मानव का विश्वास कर्मविज्ञान से सम्बन्धित आत्मा परमात्मा, स्वर्ग-नरकादि परलोक, धर्म, कर्म, कर्मफल, नैतिकता, धार्मिकता आदि पर से उखड़ता जा रहा है। आस्थाकी इन जड़ों के उखड़ने से, शेष सभी अंगोपांग उखड़ जाएँगे, इसका कोई विचार नहीं है।
वर्तमान में व्यक्ति के चिन्तन को 'फ्रायड' और 'मास' दोनों ने अत्यधिक प्रभावित किया है। फ्रायड ने व्यक्ति की प्रवृत्तियों एवं सामाजिक नैतिकता के बीच संघर्ष एवं द्वन्द्व अभिव्यक्त किया है। उसकी दृष्टि में "सैक्स' सर्वाधिक प्रमुख हो गया है। इसी एकांगी और निपट स्वार्थी दृष्टिकोण से जीवन को विश्लेषित एवं विवेचित करने का परिणाम 'किन्से रिपोर्ट के रूप में सामने आया। इस रिपोर्ट ने सैक्स के मामले में वर्तमान मनुष्य की मनःस्थितियों को विश्लेषण किया है। संयम की सीमाएँ टूटने लगीं। भोग का अतिरेक सामान्य व्यवहार का पर्याय बन गया। जिनके जीवन में यह अतिरेक नहीं था, उन्होंने अपने को मनोरोगी मान लिया। सैक्स-कुण्ठाओं के मनोरोगियों की संख्या बढ़ती गई। वासनातृप्ति ही जिंदगी का लक्ष्य हो गया। पाश्चात्य जीवन एवं रजनीशवाद आदि ने इस आग में ईन्धन का काम किया। प्रेम का अर्थ इन्द्रिय-विषय भोगों की निर्बाध, निमर्यादतृति को ही जीवन का सर्वस्व सुख मान लिया। भार्या के लिये धर्म पत्नी शब्द ने भोग पत्नी का रूप ले लिया। नैतिकता को धत्ता बता कर पति-पत्नी प्रायः आदर्शहीनता पर
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२९.
अखण्डज्योति मार्च १९७२ के “अनास्था हमें प्रेतपिशाच बना देगी", लेख के आधार पर पृ.१८ अखण्डज्योति मार्च १९७२ के "अनास्था हमें प्रेतपिशाच बना देगी" लेख से साभार उघृत, पृ. १९ वही पृष्ठ १९
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