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________________ क्या पारिवारिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय जीवन में परस्पर अविश्वास, निपटस्वार्थान्धता, आत्मीयता का अभाव, नीति और धर्म से भ्रष्ट होने से वर्तमान युग का मानव प्रायः अपने आपको एकाकी, असहाय और दीन-हीन अनुभव करता है। छल और दिखावे का, बाहरी तड़क-भड़क का ताना-बाना बुनते रहने से मन कितना भारी, चिन्तित, व्यथित, क्षुब्ध और उखड़ा-उखड़ा रहता है, यह देखा जा सकता है। सारा परिवार अनैतिकता के कारण आन्तरिक उद्वेगों की आग में मरघट की चिता बन कर जलता रहता, आन्तरिक निराशा हर घड़ी खाती रहती है। नशा पी कर गम गलत करते रहते हैं। नैतिकता की जगह भौतिकता ने ले ली है। स्वार्थ त्याग का स्थान स्वार्थ साधन ने ले लिया है। मांसाहार और मद्यपान के पक्ष में यह कुतर्क प्रस्तुत किया जाता है कि अपने स्वादिष्ट भोजन और पेय की अपनी क्षणिक लोलुपता वश पशु-पक्षियों को तथा अपने परिवार को भयंकर कष्ट सहना पड़ता है, उसकी हम क्यों चिन्ता करें? जब मनुष्य इस प्रकार का अनैतिक और स्वार्थ प्रधान बन जाता है तो उसका प्रतिफल भी कर्म के अनुसार देर सबेर मिलता है। वह दूसरों की सुविधा - असुविधा की, न्याय-अन्याय की, या सुख-दुःख की परवाह नहीं करता । नैतिकता और धर्म कर्म के प्रति अनास्था के कारण पारिवारिकता, कौटुम्बिकता और सामाजिकाता का ढाँचा लड़खड़ाने लगा है। जब नीति नियम नहीं, धर्म नहीं, आत्मा-परमात्मा नहीं, कर्म नहीं, कर्मफल नहीं, परलोक नहीं, तो फिर कर्तव्य पालन नहीं, स्वार्थ त्याग नहीं, नैतिकता के आदर्शों के पालन के लिए थोड़ी सी असुविधा उठाने की आवश्कता नहीं! इस 'नहीं' की नास्तिकता ने व्यक्ति को संकीर्णता, पशुता और अनुदारता को बढ़ावा दिया है। नैतिकता का या ले-दे के व्यवहार का भी लोप होता जा रहा है। इस प्रबल अनास्था के फलस्वरूप उच्छृंखल आचरण, स्वच्छन्द निपटस्वार्थी एवं सिद्धान्तहीन जीवन तथा अपराधी प्रवृत्तियों की आँधी तूफान की तरह बढ़ता देखा जा सकता है। ऐसा परिवार, समाज और राष्ट्र नरकागार नहीं बनेगा तो और क्या होगा ? ३३ - कर्म सिद्धान्त के अनुसार ऐसा अनैतिकता युक्त परिवार, समाज और राष्ट्र कैसा होगा ? किस के लिए और कितना सुविधा जनक होगा? इसकी कुछ झांकी जहां तहाँ देखी जा सकती है। वर्तमान युग का मानव अशान्त क्यों है ? इस पर विश्लेषण करते हुए डॉ. महावीरसरन जैन अपने लेख में लिखते हैं ३४ *“ धार्मिक चेतना एवं नैतिकता बोध से व्यक्ति से मानवीय भावना का विकास होता है। उसका जीवन सार्थक होता है।.... आज व्यक्ति का धर्मगत (नैतिक) आचरण पर विश्वास उठ गया है। पहले के व्यक्ति की, आस्था जीवन की निरन्तरता और समग्रता पर थी। वर्तमान जीवन के आचरण द्वारा अपने भविष्य (इहलौकिक और पारलौकिक जीवन) का स्वरूप निर्धारित होता है। इसलिए वह वर्तमान जीवन को साधन तथा भविष्य को साध्य मानकर चलता था । “ आज के व्यक्ति की दृष्टि' 'वर्तमान' को (तथा 'स्व' को) ही सुखी बनाने पर है। वह अपने वर्तमान को अधिकाधिक सुखी बनाना चाहता है। अपनी सारी इच्छाओं को इसी जीवन में तृप्त कर लेना चाहता है। आज का मानव संशय और दुविधा के चौराहे पर खड़ा है। वह सुख की तलाश में भटक रहा है। धन (येन-केन प्रकारेण ) बटोर रहा है। भौतिक उपकरण जोड़ रहा है। वह अपना मकान बनाता है। आलीशान इमारत बनाने के स्वप्न को मूर्तिमान करता है। मकान सजाता है । सोफासेट, वातानुकूलित व्यवस्था, (फ्रीज, रेडियो, टी.वी.) महंगे पर्दे, प्रकाशध्वनि के आधुनिकतम उपकरण एवं उनके द्वारा रचित मोहक प्रभाव, यह सब उसको अच्छा लगता है।" ३३. ३४. Jain Education International अखण्ड ज्योति मार्च १९७२ पृ. १८-१९ का भावांश। जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक कर्म का सामाजिक सकर्म लेख से पृष्ठ २८९ (१४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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