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________________ यहां से मरकर वैक्रियशक्ति धारक देव तो हो जाओगे।"" “वर्तमान के अनैतिक आचरणों (कर्मों) का भावी दुष्परिणाम बनाते हुए कहा गया है- " जो अज्ञानी मानव हिंसक है, मृणावादी है, लुटेरा है, दूसरों का हड़पने वाला है, चोर है, कपटी (ठग) है, अपहरणकर्ता एवं शठ (धूर्त) है। तथा स्त्री एवं इन्द्रिय विषयों में गृद्ध है, महारम्भी - महापरिग्रही है, मांस-मदिरा का सेवन करने वाला है, दूसरों पर अत्याचार एवं दमन करता है, ऐसा तुन्दिल व मुस्टंडा है, वह नरकाम का आकांक्षी है । ६ इसी प्रकार मृगों के शिकार जैसे अनैतिक कर्म को करते हुए संयत राजा को महामुनिगर्दमालि ने अहिंसा और अभयदान का उपदेश देकर उससे हिंसादि पापास्त्रव (पापकर्म) छुड़ाए और उसे सर्वजीवों का अभयदाता महाव्रती उच्चराजर्षि बना दिया। कर्म सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में अनैतिक आचरणकर्ता को नैतिक बनने का उपदेश इस प्रकार हम देखते हैं कि तीर्थंकरों, ज्ञानी महर्षियों तथा जैन श्रमणों द्वारा जिस किसी अनैतिक आचरण परायण व्यक्ति को सदुपदेश दिया गया है, और नीतिधर्म के सन्मार्ग पर लगाया गया है, उसे कर्मसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में ही शुभ-अशुभ कर्म, उसके उपार्जन करने के कारण और उसके शुभ-अशुभ परिणामों (फलों) का दिग्दर्शन कराया गया है। ७ नैतिक अनैतिक कर्मों के कर्ता को कर्म ही फल देते हैं, ईश्वरादि नहीं वैदिक, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों की तरह ईश्वर या किसी शक्ति विशेष का भय या उसके द्वारा समस्त प्राणियों को कर्मफल- प्रदान करने की बात नहीं बताई गई है। जैन कर्मसिद्धान्त की सर्वश्रेष्ठ उपयोगिता इसी में है कि वह परोक्ष और अगम्म ईश्वर या किसी देवी-देव को प्राणियों कर्मों का प्रेरक, कर्ता या फलदाता नहीं बताता। वह आत्मा को ही अपने नैतिक-अनैतिक कर्मों का कर्ता, और कर्मों को ही स्वयं फलदाता बता. कर वैज्ञानिक दृष्टि से कार्यकारण की मीमांसा करता है। जैनदर्शन या जैन शास्त्रों में कहीं भी यह कथन (प्ररूपण) नहीं मिलेगा कि किसी पुण्य या पाप से युक्त आचरण करने वाले को उसके उक्त कर्म का फल ईश्वर या और कोई शक्ति प्रदान करती हो । ' पूर्वोक्त शास्त्रीय उद्धरणों में सर्वत्र कर्मसिद्धान्त के अनुसार ही प्रतिपादन किया गया है, कि अनैतिक या पापयुक्त आचरण करने वाले को नरक या तिर्यञ्च गति अथवा इहलोक में रोग, शोक, दुःख, दुर्दशा आदि फल प्राप्त होते हैं, और जो नैतिक या धार्मिक आचरण करता है तथा पापाचरण या अनैतिक आचरण से दूर रहता है, उसे स्वर्ग या मनुष्य जन्म, उत्तम अवसर, शुभसंयोग, संयम प्राप्ति या मुक्ति आदि फल प्राप्त होते हैं। ईश्वर या देवी- देव आदि के समक्ष गिड़गिड़ाने, उनकी खुशामद करने, तथा कृत पापों या अनैतिक आचरणों के फल से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना करने वह या कोई शक्ति उसे अपने ५. ६. ७. ८. Jain Education International उत्तराध्ययन आ. १३ गा. ३२. कित्तसम्मूतीय । वही, अ-७ गा. ५, ६, ७ देखें उत्तराध्ययन का अठार हवाँ संयतीय अध्ययन | "अमओ पत्थिका तुज्झ अभयदाया भवाहिय । अक्रेि जीब्लोगंमि कि हिंसाए पसञ्जसि । " - उत्तरा. अ. १८११ "अप्पा बत्ता विकत्रा म दुहाजयसुहाज य।”- उत्तराध्ययन २० / ३७ (३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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