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________________ के मद (अभिमान) के कारण होता है। जातिं आदि के मद से प्राणी इस प्रकार की अंगविकलता को प्राप्त होता है, यह न समझने वाला (मदग्रस्त) व्यक्ति हतोपहत होकर जन्म-मरण के चक्र में आवर्तन-भ्रमण करता काम भोगों में ग्रस्त मानव की दुर्दशा का वर्णन करते हुए कहा गया है-“यह कामकामी (कामभोगों की कामना करने वाला) पुरुष निश्चय ही शोक (चिन्ता) करता है, विलाप करता है, मर्यादा भ्रष्ट हो जाता है, तथा दुःखों और व्यथाओं से पीड़ित और संतप्त हो जाता है।" "अज्ञानी (बाल) मूढ, मोहग्रस्त और कामसवत्त व्यक्ति का दुःख शान्त नहीं होता। “वह दु:खी व्यक्ति दु:खों के ही आवर्त (चक्र) में अनुपरिवर्तित होता (बारबार जन्म-मरण करता) रहता है।" फिर उसे किसी समय एक ही साथ उत्पन्न र अनेक रोगों का प्रादुर्भाव होता है। पूर्वकालिक नैतिक आचरण करने वालों का वर्तमान: व्यक्तित्व शास्त्रीय दृष्टि में पूर्वकालीन नैतिक आचरण करने वाले व्यक्तियों के वर्तमान व्यक्तित्व के सम्बन्ध में आचारांग सूत्र कहता है-"जो पुरुष पारगामी अनैतिक आचरणों से तथा विषयभोगों से विरक्त हैं, वे लोभसंज्ञा को पार कर चुके, वे (वर्तमान में) विमुक्त (अकर्म) हैं। वे लोभ के प्रति अलोभवृत्ति से घृणा (विरक्ति) करते हुए प्राप्त कामभोगों का सेवन (अभिग्रहण) नहीं करते।” “अरति-संयम के प्रति अरुचि भाव को दूर करने वाला वह मेधावी क्षणमात्र में मुक्त हो जाता है।” “जो आयतचक्षु (दीर्घदशी) और लोग-दृष्टा है, लोक की विभिन्नता को देखने वाला है, वह लोक के ऊत्धोभाग, ऊर्ध्वभाग और तिर्यग्भाग को और उनके स्वरूप एवं कारण को जानता है।" २ इस मनुष्य जन्म में संधि (उद्धार का अवसर) जान कर जो कर्मों से बड़ आत्म-प्रदेशों को मुक्त करता है, वही वीर है और प्रशंसा का पात्र हैं।" ३ यह शरीर जैसा अंदर से असार है, वैसा ही बाहर से असार है। और जैसा बाहर से असार है, वैसा ही अंदर से असार है। पंडित (ज्ञानी) पुरुष और देह के अंदर की अशुचि तथा बाहर स्त्राव करते देह के विभिन्न मलद्वारों को देखे और यह रुख देख कर वह शरीर के वास्तविक स्वरूप का पर्यवेक्षण करें।" " इसी प्रकार “उत्तराध्ययन सूत्र" में चित्तमुनि का जीव सम्भूति के जीव-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को वर्तमान के नैतिक आचरण और उसके भावी सुफल की प्रेरणा देते हुए कहता है-“यदि तुम भोगों को छोड़ने में असमर्थ हो तो हे राजन। कम से कम आर्य कर्म (नैतिक आचरण) तो करो। नीति धर्म में स्थित रहकर यदि तुम अपनी प्रजा के प्रति अनुकम्पाशील बनोगे तो भी (क) “कामकामी खलु अयं पुरिसे। सेसोथति जूरति तिप्पति पिड्डति (पिडति) परितछति।" (ख) “बाले पुण णिहे काम-समणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाजमेव आवटै अणुपरियट्टइ। - आचा १-२-३ (ग) तओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पंजंति।"- आचारांग प्र-१, अ-२, उ-६, ३, ४ विमुक्का हु ते जणा, जे जप्णा पारगामिणो। लोभ अलोभेण दुगुंछमाणे, लक्षद्धे कामे नग्मिगाहइ। विणइचं लोभं निवखम्म एवम् अकम्मे जाणति पासति।"-आचारांग श्रु-१, अ-२, उ-२ "अरई आउट्टे से मेहावी रवणंसि मुक्के।"- वही, १/२/२ आययचक्खू लोगविपस्सी, लोगस्स अहोभागं जाजइ उडुंभागंजाणइ तिरियं भाग जाणइ। ३. संधि विदिला इह मककिएहि, एसवीरे पुसेसिए जो बद्धे पडियोयए। वही ११२५ ४. जहा अंतो वहाबाहिं जहाँबाहिं तहाअंतो। पंडिए पडिलेहाए। • आर्चारोग १।२।५ २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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