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कृतकों के फल से मुक्त नहीं कर सकती। कर्म के मामले में ईश्वर या किसी शक्ति का हस्तक्षेप जैन कर्मसिद्धान्त स्वीकार नहीं करता। सप्तव्यसनरूप अनैतिक कर्मों का फल किसी माध्यम से नहीं, स्वतः मिलता है
जैनाचार्यों ने जैन कर्मसिद्धान्तानुसार नैतिक और अनैतिक आचरणों (कर्मों) का फल स्वतः तथा सीधे ही मिलने की बात कही है जैसे कि सप्त कुव्य सनरूप अनैतिक आचरण का सीधे (Direct) फल बताते हुए एक जैनाचार्य ने कहा है -“द्यूत, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परस्त्रीगमन, लोक में ये सात कव्यसन हैं, अनैतिक (पापमय) आचरण हैं, जो व्यक्ति को घोरातिघोर नरक में डालते हैं। १० अथवा व्यक्ति इनसे घोरतम नरक में पड़ते हैं।” यहाँ किसी ईश्वर या किसी शक्ति को माध्यम (बिचौलिया) नहीं बताया गया है कि ईश्वर या अमुक शक्ति कुव्यसनी को घोर नरक में डालती है।
अतः नैतिकता के सन्दर्भ में जैनकर्म सिद्धान्त की उपयोगिता स्पष्ट सिद्ध है। ईसाई धर्म मैं पाप कर्म से बचने की चिन्ता नहीं, क्यों और कैसे?
इसके विपरीत ईसाई धर्म के सिद्धान्तों पर दृष्टिपात करते हैं तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि वहाँ नैतिक अनैतिक आचरण (कर्म) का शुभ-अशुभ फल सीधा कर्म से नहीं मिलता, ईश्वर से मिलता है। जैसा कि डॉ. ए.बी. शिवाजी लिखते हैं -“मसी ही धर्म में कर्म, विश्वास और पश्चाताप पर अधिक बल दिया गया है। याकूब, जो प्रभु ईसामसीह का भाई था, अपनी पत्री में लिखता है -'सो तुमने देखलिया कि मनुष्य केवल विश्वास से ही नहीं, कर्मों से भी धर्मी ठहरता है। अर्थात्-कर्मों के साथ विश्वास भी आवश्यक है।"...'पौलूस' विश्वास पर बल देता है। उसका कथन है -“मनुष्य विश्वास से धर्मी ठहरता है, कर्मों से नहीं।" यह तथ्य स्पष्ट कर देता है कि मनुष्य के कर्म (शुभाशुभ या नैतिक अनैतिक आचरण) उसका उद्धार नहीं कर सकते। वह अपने कर्मों पर घमण्ड नहीं कर सकता।” पौलुस की विचारधारा में कर्म की अपेक्षा विश्वास का ही अधिक महत्व है। “यदि इब्राहीम कर्मों से धर्मी ठहराया जाता तो उसे घमण्ड करने की जगह होती, परन्तु परमेश्वर के निकट नहीं।” पौलूस की लिखी हुई कई पत्रियों में इस बात के प्रमाण हैं।"जीवन में मोक्ष का आधार कर्म नहीं विश्वास है।" विश्वास से धर्मीजन जीवित रहेगा।"ईसामसीह के अन्य शिष्यों ने भी विश्वास पर बल दिया है। इसी विश्वास को लेकर 'यूहन्ना' ईसामसीह के शब्दों को लिखता है-“यदि तुम विश्वास न करोगे कि मैं वही हूँ तो अपने पापों में मरोगे।११
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(क) 'आता पराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।' - चाणक्यनीति (ख) स्वयं कृत कर्मयदान्मना पुरा फलंतजीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकंतदा॥ - अमिहगति सामायिकपाठ ३० "धृतं च मांसं च सुरा च वेश्या-पापद-चौर्य परदारसेवा। एतानि सपृ व्यसनानि लोके घोरातिघोरे नरके पतन्ति॥" (क) याकूब की पत्री २:२४ (ख) रोमियो ५:१ (ग) सेमियो ४:२ (घ) प्रेरितो के काम १६:३१ (ड) यूहन्ना ८:२४ (च) जिनवाणी सिद्धांत विशेषांक में प्रकाशित "मसीही धर्म में कर्म की मान्यता " लेख से. पृ २०५-२०६
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