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________________ “नारी के बहुविद्य पर्यायार्थक नाम उस के कार्यों और स्थितियों के अनुसार व्यवहृत हैं। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से “नारी" शब्द का सन्धि विच्छेद इस प्रकार हैं - न + अरि इतिनारी जिस का कोई शत्रु नहीं है, वह नारी है। उस ने आध्यात्मिक और साहित्यिक क्षेत्र में प्रगति कर पुरुषों को गौरवान्वित किया है। अतएव वह “योषा" कहलाई। २ वह गृह नीति की संचालिका है। अतएवं वह “गृहिणी" है। पूजनीया होने के कारण वह “महिला” शब्द से अभिहित है। नारी जीवन के उच्चतम आदर्श का शुभारम्भ और समापन “मातृत्व” में हुआ है। “माता” नाम से अधिक पावन आध्यात्मिक नाम नारी का दूसरा नहीं है। वह मानवता की रक्षा, आत्मा की संरक्षा माता के रूप में ही कर सकती है। माता निर्मात्री है। वह देव और गुरु के समान वन्दनीय है। मानव में जो कमनीय और कोमल भावनाएँ हैं, वे माता की देन हैं। माता के द्वारा मस्तिष्क, मांस और रक्त इन तीन महत्वपूर्ण अंगों की प्राप्ति होती है। माता अगाध-अपार वात्सल्य की साक्षात् अमर प्रतिमूर्ति है। उस की असीम ममता सचमुच में निराली है। पुत्र माता का कलेजा है। तीर्थ कर रूप बनने वाली उस भव्यात्मा को पुरुष रूप में जन्म देने वाली “माता" है, नारी है। नारी तीर्थंकर को जन्म देती है। उस माता के विशिष्ट महत्व का यथातथ्य मूल्यांकन कौन कर सकता है? जिस माता के पावन उदर में तीर्थंकर ने अवतरण किया। उस की पावनता वचनातीत है। माता की स्तुति इस रूप में की गई है -संसार में सैकड़ों स्त्रियाँ पुत्रों को जन्म देती हैं। किन्तु हे भगवन्! आप जैसे अद्वितीय, अनुपम पुत्ररत्न को जन्म देने वाली विलक्षण स्त्री ही होती है। नक्षत्रों को सर्व दिशाएँ धारण करती हैं, परन्तु अन्धकार-विनाशक सूर्य को पूर्व दिशा पैदा करती हैं। नारी की कुक्षि से तीन लोक के स्वामीतीर्थकर का जन्म होता है। तीर्थकर के पावन-प्रवचन से चतर्विध धर्म-तीर्थ की स्थापना होती है। जिससे भव्य प्राणी सन्मार्ग पर बढ़कर आत्म कल्याण करते हैं। ऐसे तीर्थंकर की जननी किसी एक के द्वारा पूजनीय है, अर्चनीय है। तीर्थंकर जैसे पुत्ररत्न को जन्म देती है। अतएव उस के अनेक नामों में “जनिः” नाम सर्वथा सार्थक है। कोमल और मधुर भावनाओं से समाविष्ट जानित्व अर्थात् मातृत्व का यह गौरवमय रूप सार्वदेशिक एवं सार्वयुगीन है, शाश्वत है। जननी अपने रोम-रोम से अपनी सलौनी सन्तान का आत्म-कल्याण साधन करती है। वह जगज्जननी के विशिष्ट रूप में सृष्टि करती है। सरस्वती के रूप में विद्या प्रदान करती है, असुरनाशिनी के रूप में सुरक्षा करती है, लक्ष्मी के रूप में अपार-वैभव सौंपती है, और शान्ति के रूप में बल का अभिसंचार करती है। माता को और उस के बहुविद्य अनन्त उपकारों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। नारी पर्याय का परमोत्कर्ष आर्यिका के महनीय रूप को धारण करने में है। आर्या का काव्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है -सज्जनों, के द्वारा जो अर्चनीय पूजनीय होती है, जो निर्मल चारित्र को धारण करती है, वह आर्या कहलाती है। आर्या का अपर नाम “साध्वी" है। जो अध्यात्म साधना का यथाशक्ति परिपालन करती है, उसे “साध्वी" कहा जाता है। शम, शील, श्रुत और संयम ही साध्वी का ३ - वाचस्पत्य शब्द कल्पद्रुम -३/५१/१/ ४ - उपासक दशांग अध्ययन ३/ सूत्र -१३७! ५ क - भगवती सूत्र शतक -१ उद्धेशक -७! ख - स्थानांग सूत्र स्थान -३ उद्धेशक -४ सूत्र २० ए! ६ - भक्ताभर स्तोत्र, श्लोक - २२! (२१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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