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श्रमण संस्कृति में नारी : एक मूल्यांकन
• उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के शिष्य श्री रमेश मुनि शास्त्री
मानव सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ प्राणी है, और वह देवत्व एवं दानवत्व का समन्वय होता है। कभी उस का एक लक्षण जाग्रत रहता है और अन्य लक्षण प्रसुप्त रहता है। यह क्रम भी विलोम हो जाता है। इसी महत्वपूर्ण आधार शिला पर मानव मात्र का यथार्थ रूपेण मूल्यांकन होता है कि वह भला है अथवा बुरा है? देवत्व की कमनीय-कल्पना उच्चस्तरीय मानवीय विलक्षण-विशेषताओं के समन्वित रूप में की जा सकती है, गणनातीत सद्गणों के समुच्चय के रूप में की जा सकती है। इसके विपरीत मानव की कुप्रवृत्तियाँ ही दानवत्व का परिचायक है। श्रमण संस्कृति व्यक्ति-व्यक्ति के इसी प्रकार के व्यक्तित्व को संवारती है। वह मानव की यथार्थ-अर्थ में मनुष्यता से सम्पन्न करती है। मनुष्य का जो संस्कार करना है, वह संस्कृति के माध्यम से पूर्ण होता है। उक्त संस्कृति मानव के जीवन को ज्योतिर्मय रूप देने का कार्य भी सम्पन्न करती है।
श्रमण-संस्कृति के विपुल विशाल वाङ्मय में नारी की महिमा और गरिमा की जो गौरवपूर्ण गाथा गाई गई है, वह वस्तुतः अपूर्व है। प्राचीन काल में नारी श्रमण संस्कृति की सजग प्रहरी थी, वह एक ज्योति-स्तम्भ के रूप में रही थी। इतना ही नहीं वह अध्यात्म चेतना और बौद्धिक उन्मेष की परम-पुनीत प्रतिमा थी। अध्यात्म शक्ति का चरम उत्कर्ष ‘मुक्ति' स्त्री वाचक शब्द ही हैं। पौरुष एवं शक्ति एक ही शक्ति के दो रूप हैं, पक्ष हैं, पहलू हैं, वह शान्ति की शीतल सरिता प्रवाहित करने वाली है और आध्यात्मिक क्रान्ति की ज्योति को जगमगाने वाली भी है। वास्तविकता यह है कि वह शान्ति और क्रान्ति की पृष्ठभूमि निर्मित करती है।
जैन साहित्य का सर्वेक्षण करने पर स्पष्टतः प्रतीत होता है कि अतीत काल में श्रमणियों का संगठन सुव्यवस्थित एवं अद्धितीय था। जिस युग में जो तीर्थंकर होते थे, वे केवल ज्ञान के पश्चात् चतुर्विध संघ श्रमण-श्रमणी-श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका की संस्थापना करते हैं। जिसे आगमिक भाषा में तीर्थ कहा जाता है। जिन धर्म का मूलभूत महास्तम्भ तीर्थ है। तीर्थंकर का तोरल तीर्थ पर आधारित है। तीर्थंकर जब समवसरण में धर्म देशना देते हैं, उस समय वे तीर्थं को नमस्कार करते हैं। उक्त कथन से अति स्पष्ट है कि तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ वन्दनीय है। चतुर्विध तीर्थ में आत्मा की दृष्टि से नारी और पुरुष इन दोनों में तात्विक विभेद नहीं है, आध्यात्मिक जगत् में नर और नारी का समान रूप से मूल्यांकन हुआ है। जो व्यक्ति स्त्री हो या पुरुष, रागद्वेष का आत्यन्तिक क्षय कर देता है, वही परम लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। अनन्त अक्षय आनन्द का साक्षात्कार कर सकता है।
१- भगवती सूत्र २०/८! २ - आवश्यक नियुक्ति गाथा -५६७!
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