________________
भी उन्होंने अपनी शिष्याओं तक को याद नहीं किया और न ही उनके लिये कोई अंतिम संदेश ही छोड़ा। स्वर्गवास होने के एक दिन पूर्व प्रात: का लिखा उनका अंतिम पत्र अवश्य था। इस पत्र में उन्होंने बहुत ही हितावह बातें लिखी थी। उनका यह अंतिम पत्र और उसमें अंकित शिक्षायें ही अब मेरे पास उनकी अनमोल धरोहर है। जब उन्होंने यह पत्र लिखा था, तब वे भी नहीं जानती थी कि यह उनका अंतिम पत्र होगा।
पू. गुरुवर्याश्री के उपचार के लिए डॉ. सुराणा ने कोई प्रयल शेष नहीं छोड़ा। किन्तु टूटी की बूटी नहीं है। सभी प्रयास निष्फल हो गये और गुरुवर्याश्री सबको रोता-बिलखता छोड़कर महाप्रयाण कर गये। बिना आत्मा की देह मिट्टी है। मिट्टी में प्राणों का संचार करना मानव के सामर्थ्य के बाहर है। उपस्थित जन समूह अश्रुपूरित नेत्रों से एक दूसरे की ओर देखकर कह रहे थे कि यह क्या हो गया। दाद गुरुवर्याश्री का मुख भी अन्तर व्यथा से श्याम हो गया था। नयन शून्यता से भरे बरस रहे थे। विचार कीजिये उस माता की स्थिति का जिसकी आँखों के सामने उसके पुत्र का देहांत हो जाए तो उसको कितना दुख होगा। आज दाद गुरुवर्याश्री की भी ठीक वैसी ही स्थिति हो रही थी। पू. गुरुवर्याश्री उनकी प्रथम शिष्या थी और सर्व प्रकार से विदुषी थी। उनका दुखी होना स्वाभाविक था। सभी साध्वी विकलता से बेचैने खड़ी थी। मृत्यु .के डंक से बचने-बचाने की शक्ति सामर्थ्य किसी भी संसारी व्यक्ति में नहीं है। नये वर्ष की आनंदमयी मंगल बेला में विषाद के बादल बरसने लगे। समीपस्थ एवं दूरस्थ सभी स्थानों पर तत्काल तार-टेलीफोन आदि से समाचार कर दिये गये। आकाशवाणी द्वारा भी समाचार प्रसारित किये गये। आपश्री के दिवंगत होने के समाचार मिलते ही दर्शनार्थी समूह के रूप में उमड़ पड़े।
विधि का विधान निश्चित है, वह किसी भी स्थिति में टलता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु, मृत्यु का समय और स्थान निश्चित हो जाता है। विधि ने गुरुवर्याश्री के स्वर्गवास की तिथि और स्थान नियत कर रखा था किंतु हम इससे अनभिज्ञ होते है। इसी अज्ञानता के परिणाम स्वरूप आज रंग में भंग हुआ। हजारों लोगों के बीच गुरुवर्याश्री की पार्थिक देह को चंदन की चिता पर लिटा कर उनका अग्नि संस्कार किया गया। पंचमहाभूतों से बनी देह उसी में विलीन हो गई।
दिनांक १७.३.९१ तदानुसार चैत्र शुक्ला प्रतिपदा सं. २०४८ को रात्रि ग्यारह बज कर पैतालीस
र गरुवर्याश्री का देहावसान हआ। दि.१८३.९१ को उनका अंतिम संस्कार किया गया। इसी दिन पंडितरत्न, आगम मनीषी पू. आशीष मुनिजी म.सा अपने शिष्यों के साथ महासती जी को सांत्वना देने के लिए पधारे। साध्वी जी श्री शांता कुंवर जी म. की शिष्या एवं श्री पुष्पावती जी म. आदि भी संवेदना प्रकट करने के लिए पधारी।
बुधवार को प्रात: जैन स्थानक में श्रद्वांजली सभा का आयोजन किया गया। इस श्रद्धांजलि सभा में पंडितरत्न श्री आशीष मुनिजी म.सा ने बहुत ही सुन्दर ढंग से सारगर्मित शब्दों में पू. गुरुवर्याश्री को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। दाद गुरुवर्याश्री महाराजश्री कानकुंवर जी म. एवं उनकी सुयोग्य शिष्याओं के अतिरिक्त श्री अजित कुंवर जी म. श्री दिव्यसाधना जी म. श्री आचार्य तुलसी की शिष्या श्रमणी ने पू. गुरुवर्याश्री को अपनी-अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इनके अतिरिक्त अन्य विभिन्न श्रद्धालु भक्तों ने भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। पू. गुरुवर्य्याश्री के महाप्रयाण की जितनी वेदना, दाद गुरुवर्य्याश्री को हो रही थी, उसका वर्णन करने में मेरी लेखनी असमर्थ है।
(६८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org