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________________ स्व- पर कल्याण की भावना से निरन्तर गतिशील मुनि का जीवन ही प्रतिपल आत्म विश्वास की और बढ़ता है और यही मुनि का उत्तम जीवन है । दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् आपने अपना सारा ध्यान सेवा, स्वाध्याय, ज्ञानार्जन, ध्यान साधना में लगा दिया। अध्ययन- ज्ञान, ध्यान, संयम साधना ही आपके जीवन का लक्ष्य था । और अब आप उसमें लीन रहने लगी। जैन साधु-साध्वी के लिए आचार एवं विचार दोनों ही पक्ष सामान्य रूप से मान्य होते हैं । आचारहीन विचारों का जहाँ कोई महत्व नहीं वहाँ विचार शून्य आचार भी काय क्लेश है। आचार व विचार का सामंजस्य ही पूर्णता की प्राप्ति के लिए हित कर है। जैन मुनि का निर्दोष संयमी जीवन ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पवित्र उपासना का प्रतीक है। वह सभी सांसारिक उपाधियों का त्याग कर ज्ञानाराधना में संलग्न हो जाता है। ज्यों-ज्यों सम्यग्ज्ञान द्वारा वस्तु का वास्तविक रूप ज्ञात होता है, त्यों-त्यों रत्नत्रयी निर्मल बनती जाती हैं । ज्ञान बिना आत्म धर्म की सुन्दरतम आराधना संभव नहीं होती । अतः दीक्षाव्रत अंगीकार कर आप ज्ञानाराधना में तल्लीन हो गई । आप प्रारम्भ से ही प्रखर बुद्धि की स्वामिनी थी । अल्प समय में ही आपने व्याकरण, काव्य, कोश, छंद, अलंकार, न्याय आदि का अध्ययन कर लिया। इसके साथ ही आपने आगमों का भी तलस्पर्शी अध्ययन कर लिया। कई शास्त्र आपने कंठस्थ किये। जैन सिद्धात व आचार्य की परीक्षा भी आपने अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। जिसके पास बुद्धि वैभव होता है। उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं होता । बुद्धि का धनी कलम के बल पर लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति अर्जित कर लेता है। बुद्धिहीन व्यक्ति दिन भर हथोड़े चलाकर भी अपना पूरा पेट भर पाने योग्य अर्जित नहीं कर पाता है । आपकी अध्ययन में अत्यधिक रुचि थी। पाठ कंठस्थ करने का समय प्रायः पूरा हो चुका था । अब पठन-पाठन, चिंतन-मनन का समय था। आपके हाथ में जो भी अच्छी पुस्तक आ जाती, उसे समाप्त किये बिना आपको चैन नहीं मिलता। आपकी ग्राह्यशक्ति अद्भुत थी । आप जिस भी पुस्तक का अध्ययन एक बार कर लेती, उसका सार संक्षेप आपके मानस पटल पर सुरक्षित हो जाता और उसका उपयोग अवसरानुकूल कर लिया करती । जैन धर्म से संबंधित ग्रंथों का पर्यावलोकन तो आपके लिए अनिवार्य था ही, इतर साहित्य का भी आपने पर्याप्त अध्ययन किया । उसका आपने अध्ययन ही नहीं किया वरन् उसे आत्मसात भी किया । हर समय आप अध्ययन में तल्लीन रहती। थोड़ा सा भी समय आप व्यर्थ गंवाना स्वीकार नहीं करती। आपके पास बुद्धिबल और गुरुकृपा का अक्षय खजाना था इसके परिणामस्वरूप विशेष परिश्रम किये बिना ही आप पण्डिता हो गई । गुरु के रोम रोम में शिष्य के लिये कल्याण कामना, शिष्य के जीवन विकास की पवित्र भावना बसी रहती है। ऐसे गुरु की सेवा उनके कटु मधुर शब्द शिष्य के जीवन निर्माण की आधारशिला बनते हैं । लगातार सात वर्ष का समय ज्ञानार्जन के साथ-साथ गुरु सेवा एवं गुरु कृपा प्राप्ति में ही व्यतीत हुआ । आघात - मृत्यु नागिन प्राणिमात्र के भौतिक शरीर को डसने के लिए प्रतिपल सचेष्ट है। क्या धनी, क्या निर्धन, क्या ज्ञानी, क्या अज्ञानी आबाल वृद्ध सभी के जीवन की शिखा इस पिशाचिनी के हाथों आबद्ध है | नगर, जंगल, पर्वत, डाल-डाल, पत्ते - पत्ते से इस नागिन की क्रूरता का मर्मभेदी हाहाकार सुनाई दे रहा है । मानव की समस्त शक्तियां इसके सामने कुण्ठित हो गई। हवा-पानी, धूप-छांव जैसी नैसर्गिक शक्तियों पर Jain Education International (५१) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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