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________________ संसरणात्मक संसार की क्रियाशीलता ने चम्पाकुमारी के जीवन साथी की सुखद छाया अकस्मात ही सदा सदा के लिये समेट ली। श्री रामलाल जी काजेला का अल्पकालीन व्याधि कैंसर के कारण बीकानेर में स्वर्गवास हो गया। इस आकस्मिक आघात ने परिवार और नगर को शोकाकुल बना दिया। जहाँ आठों पहर आनंद अठखेलियां करता था वहाँ आज दुःख का अट्टहास गूंज रहा था। वातावरण निष्प्राण प्रतीत होने लगा। __ अपनी ही आंखों के सामने अपने ही तरुण होनहार सुयोग्य पुत्र की मृत्यु ! इससे अधिक और क्या वज्रपात होता । ससुरजी का हृदय टूट गया। अरमान बिखर गये। किशोरी पुत्र वधु का का वैधव्य उनके कलेजे को चीर गया। वे जीवन से हताश हो गये, आयुष्य की लम्बी घड़िया व्यतीत करना भारी हो गई। जीना विवशता हो गई थी। श्री नेमीचन्द जी के लिये यह आघात असह्य निकला। सांसारिक दृष्टि से इससे बढ़कर और दुःख | क्या था? चम्पाकुमारी की वेदना असीम थी। उनका तो संसार ही उजड़ गया था। संचित सपनों का भंडार लुट गया था। मधुर कल्पनाओं से भरा भविष्य नियति के क्रूर हाथों से छिन्न भिन्न हो सदा सदा के लिये मिट गया था। उनके भाल का सौभाग्य सिन्दूर धुल गया। संसार शून्य हो गया था। महापुरुषों ने सदैव विष में ही अमृत, अनिष्ट में इष्ट और अमंगल में मंगल खोज निकाला है। पति की मृत्यु ने चम्पाकुमारी को विचारमग्न बना दिया। तेरह वर्ष की अल्पायु में इस आघात ने उनके चिंतन की दिशा ही बदल दी। उनके अपरिपक्व मानस पटल पर प्रति क्षण मृत्यु क्या? मृत्यु क्यों? जैसे गूढ़ प्रश्न उठने लगे। जितना चिंतन होता, होता ही रहता किन्तु कोई समाधान नहीं मिलता। सूनी आँखों से वह इधर उधर देखा करती किन्तु मात्र देखने से क्या कभी ऐसे प्रश्नों का समाधान मिला है? जैसे-जैसे चिंतन बढ़ता, जिज्ञासा में भी वृद्धि होती। अपनी बात किससे पूछे। चारों ओर तो गम्भीर उदासीनता छाई हुई थी। यह आघात इतना क्रूर था कि उसे सहज में ही भुला देना मानव के लिये सम्भव नहीं था। कहा गया है कि ऐसे दुःख की सबसे अच्छी दवा समय है। समय के बीतने के साथ-साथ शोक भी कम होता जाता है। यही बात यहां भी लागू होती है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे परिवार के सदस्य सामान्य होने लगे। घर का कामकाज की व्यवस्था भी धीरे-धीरे जमने लगी। आनन्दहीन सामान्य वातावरण बन गया। सही तो यह है कि मरने वाले के लिए कोई मरता नहीं, जाने वाला चला जाता है, रहने वालों को सभी कुछ करना पड़ता है। इधर परिवार का वातावरण सामान्य होने लगा तो चम्पाकुमारी का चैन दुर्लभ हो गया। वे विचारों के सागर में डूबने तैरने लगी। उनके चिंतन की गहराई बढ़ने लगी। संसार की नश्वरता का कुछ-कुछ आभास होने लगा। परिवर्तित परिस्थितियों में उनके मानस पटल पर विचार उभरते- 'अब इन झंकारों से मेरा क्या मतलब? जिसको लेकर संसार था वही जब चला गया तो इन सांसारिक राग रंगों से मेरा क्या नाता हैं? किसी सुयोग्य गुरुवर्या का सान्निध्य मिले तो मेरा यह निरर्थक जीवन सार्थक बन जाय। जीवन का क्या भरोसा है, आज है कल नहीं। कुछ आत्म-कल्याणकारी कार्य, ही क्यों न कर लिया जाय। किन्तु यह सब हो कैसे?" यह विचार मंथन चलता रहा। समस्या ज्यों की त्यों ही रही। भावना बढ़ती गई। जब देखो तब मौन, निरीह विचारों में खोई दिखाई पड़ती। यदि उनके विचारों को शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो उनके मानस पटल परं वैराग्य के अंकुर फूट रहे थे। वैराग्य उदय हो रहा था। वैराग्योत्पत्ति के कई कारण शास्त्रों में दिये (४४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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