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गये है। यहां उनकी चर्चा करना अप्रासंगिक प्रतीत अवश्य हो रहा है किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनके मानस पटल पर अंकुरित होने वाले वैराग्य पूरित विचार ज्ञानगर्भित थे।
__ मानव जीवन की मंजिल विचारों में ही छिपी रहती है। चम्पाकुमारी को विचार मंथन में मंजिल के मार्ग की झलक मिल गई। परन्तु इस मार्ग पर चलने के लिए जो विघ्न बाधाएं थी, उन्हें देख कर मन कांप जाता। साध्वी जीवन की मधुर कल्पनाओं में उनका मन रम जाता। वे अपने भविष्य के अदृश्य निर्माण में तल्लीन हो जाती । भौतिक रूप से उन्हें लगभग सभी प्रकार के सुख उपलब्ध थे। यों कहा जा सकता है कि पति के वियोग के पश्चात भी वे एक प्रकार से पूर्ण सुखी जीवन जी रही थीं, किन्तु महान आत्माओं को ये भौतिक सुख कब तक सुखी बनाने में समर्थ रहे हैं। चैतन्य सुख के अभिलाषियों, मनीषियों को इन जड़ सुखों में आनन्द उपलब्ध नहीं होता। सभी सुख सम्पन्नता के मध्य उनके हृदय में एक अभाव बना रहता। वे एक प्रकार की रिक्तता का अनुभव करती। ये भौतिक सुख उन्हें रुचिकर नहीं लगते। उनके व्यवहार में उदासीनता की झलक स्पष्ट दिखाई देती थी। इतना सब होने पर भी अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा में किसी प्रकार की शिथिलता नहीं आने देती थी। उनका हृदय वैराग्य से पूरित था किन्तु फिर भी सांसारिक जीवन में निमग्न
थी।
सास का प्यार उन्हें माता के प्यार दुलार से भी बढ़कर मिला। सास सुन्दर, सुशील, विनयमूर्ति बहू को पाकर फूली न समाती थी। इतने प्यार दुलार को पाकर भी चम्पाकुमारी को इस अवस्था में संतोष नहीं था। प्रसन्नता नहीं थी। इसका कारण उनका वैरागी मन था। उन्हे संसार असार लगता। इस असार संसार से निकलने के लिए उनका मन छटपटा रहा था किन्तु कोई राह नहीं मिल पा रही थी। वे करें तो क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
कहा गया है कि जहां चाह होती है वहाँ राह भी निकल आती है। महापुरुषों के मनोरथ कभी भी निष्फल नहीं होते । चम्पाकुमारी की मनोकामनाएं पूर्ण होने का भी समय आ गया, ऐसा संकेत मिलने लगा।
महासती जी का सान्निध्य- वर्षावास प्रारम्भ हो चुका था। जैन मुनिराज एवं महासतियांजी वर्षावास हेतु अपने अपने घोषित क्षेत्रों में पधार चुके थे। इसी अनुक्रम में बालाघाट श्रीसंघ की विनती स्वीकार कर महासती श्री हगामकुंवर जी म.सा. भी वर्षावास हेतु बालाघाट में पधार चुके थे। वर्षावास की सम्पूर्ण अवधि में प्रवचन होते है। धर्म ध्यान की भी धूम मच जाती है । बालाघाट में भी महासतीजी के प्रवचन आरम्भ हो गये थे। चम्पाकुमारी को सुखद संयोग मिल गया। वे प्रतिदिन प्रवचन पीयूष का पान करने जाती। दिन में - अध्ययन करने के लिए भी महासती जी की सेवा में चली जाती। इस प्रकार लगभग पूरा दिन ही स्थानक में बीतता। इसमें आपका मन भी रमा रहता। एक दिन एकान्त पाकर चम्पाकुमारी ने महासती जी के समक्ष अपने मन की गठड़ी की गांठ खोल कर पसार दी और कहने लगी
___ “महासती जी अब तो संसार नहीं सुहाता। ये भोग, यह ऐश्वर्य, धन, परिवार नहीं भाता। यों देखने में मुझे कोई अभाव नहीं है। अपने परिवार में भी मुझे कोई कष्ट नहीं है। मुझे पूरे परिवार का स्नेह, दुलार पूरी तरह मिल रहा है किन्तु फिर भी आनन्दानुभूति नहीं हो रही है। मेरा मन बार बार कहता है कि आनन्द की उपलब्धि संयम में ही होगी। मेरा विचार दीक्षावत अंगीकार करने का है।"
अपने सामने बैठी सुन्दर सलोनी किशोरी की बात सुनकर महासती जी विचारमग्न हो गई। महासती जी उस किशोरी की बात पर आश्चर्यचकित भी हो गई। कुछ क्षणोपरांत महासती जी ने कहा- “तुम कैसी बातें कर रही हो । तुम्हें क्या कष्ट हैं ?”
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