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काजेला के साथ सम्पन्न कर दिया गया। वर वधु दोनों की ही आयु इतनी थी कि वे विवाह का अर्थ भी नहीं जानते थे। वे तो बस केवल इतना जानते थे कि बाजे बज रहे हैं, महिलाएं गीत गा रही है और खाने को विविध प्रकार के पकवान मिल रहे हैं, नये-नये वस्त्राभूषण भी पहनने को मिल रहे हैं। दोनों की प्रसन्नता बस इसी में थी।
श्रीमंत कुटुम्ब मालदार पितृपक्ष शुभ लक्षिणी सुरूपा कन्या, सुयोग्य वर सोने में सुहागे का कार्य कर रहा था। खुशी और धूमधाम का क्या कहना । नन्हीं सी बालिका चम्पा को विभिन्न आभूषणों व नवीन वस्त्रों से लाद दिया गया। परम्परानुसार विवाह का कार्यक्रम धूमधाम के साथ सम्पन्न हो गया।
वज्राघात- अल्पायु में ही चम्पाकुमारी वैवाहिक बंधन में बंध तो गई। किन्तु विवाह क्या होता है? पति का सुख क्या होता है? ससुराल कैसा होता है? इसका अहसास चम्पाकुमारी को नहीं हो पाया। विवाह होने के पश्चात् एक वर्ष का समय हंसी-खुशी में ही बीत गया । क्रूरकाल को दोनों परिवारों की यह प्रसन्नता देखी नहीं गई। उसने अपना क्रूर पंजा फैलाया और कुछ ही समय में उसने चम्पाकुमारी के सौभाग्य श्रीमान् रामलाल जी काजेला को हमेशा के लिये उनसे छीन लिया। अजीब है विधि का विधान और क्रूर काल का आतंक । हंसते खेलते परिवारों में मातम का साम्राज्य छा गया। परिवार के सदस्यों ने क्या सोचा था और क्या हो गया। परिवार के सभी सदस्यों की आंखों से अश्रुधारा रूक नहीं पा रही थी। ऐसी विषम परिस्थिति में चम्पाकुमारी की स्थिति भी बड़ी विचित्र ही थी। वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी, अपलक नेत्रों से टुकूर-टुकूर देखा करती। यह सब क्यों और कैसे हो गया, यह उसकी समझ के बाहर की बात थी।
विधि का विधान हमारे समझ के बाहर हैं। उसे जो करवाना होता है, वह करवा लेता है। कार्य कैसे हो, यह उसकी अपनी शैली के अनुसार होता है। हाँ, उसके विधान में लिखे को टालना मानव के सामर्थ्य के बाहर की बात है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने चम्पाकुमारी को शायद किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिये तैयार किया था। जन्म के समय ज्योतिषी द्वारा कही गई बात भी कुछ ऐसा ही संकेत दे रही थी कि यह एक महान पुण्यात्मा है। संभव है विधाता ने इस पवित्र देवी स्वरूपा चम्पाकुमारी को त्याग वैराग्यमय श्वेत वस्त्र एवं अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह रूपी आवरणों से सजाने का निश्चय कर रखा है। जिस आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रयी चमक थी। उस पुण्यात्मा की शोभा ये मिट्टी के अलंकार कब बढ़ाते। अतः मार्ग में आने वाली बाधायें विधि के विधानानुसार हटने लगी और चम्पाकुमारी का मार्ग प्रशस्त होता गया। इस बात को सांसारिक प्राणी नहीं समझ सकते।
वैराग्य के अंकुर- घात-प्रतिघात न हो तो मानव जीवन ही कैसा? इसमें सुख-दुःख की आँख मिचौनी का खेल धूप-छाया की तरह आता रहता है। अभी अभी हंसने वाले नयन रोने और रोने वाले नयन मुस्कराने लगते हैं। कभी मन पीड़ित तो कभी तन पीड़ित। कभी पारिवारिक व्याधियाँ तो कभी सामाजिक रूढ़ियाँ मानव को व्यथित करती ही रहती है। ऐसा कोई नेत्र नहीं जिसने दुःख के आँसू गिराये हो, ऐसा कोई हृदय जो नहीं संयोग-वियोग से आंदोलित नहीं हुआ हो। ऐसा कोई मन नहीं जिसे अभावों ने नहीं सताया अथवा जिसमें असंतोष का भूचाल नहीं आया हो। संसार में ऐसा कोई घर या स्थान नहीं जिस पर मृत्यु की छाया पड़ी नहीं। फिर हमारी चरित्रनायिका भी इसका अपवाद क्यों होती? किन्तु कभी-कभी आकस्मिक लगने वाला आघात मानव हृदय की समस्त आशा आकांक्षाओं का वेग रोक कर जीवन की दिशा ही बदल देता है। जीवन की भोग विलासपूर्ण गतिशीलता जीवन के सत्य तथ्य की खोज में तत्पर होकर त्याग वैराग्य की ओर मुड़ जाती है। जिसमें महापुरुषों के जीवन की बात ही क्या?
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